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________________ १६० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान-जितने भी बारहसभा में देव, मनुष्य या तिथंच होते हैं उन सबको अरहंत देव निर्ग्रन्थगुरु और अहिंसामयी धर्म पर श्रद्धा होती है इस अपेक्षा से वे सभी सम्यग्दृष्टि हैं किन्तु इनमें से जिनके दर्शन मोह का उपशम, क्षयोपशम या क्षय नहीं हुआ है वे मिथ्यात्व के उदय की अपेक्षा मिथ्यारष्टि हैं। जिस जीव को अरहंत देव निर्ग्रन्थ गुरु और अहिंसामयी धर्म की श्रद्धा नहीं है और कूगुरु आदि की श्रद्धा है, वे बारह सभा के अन्दर नहीं जाते । यहाँ पर मिथ्यादृष्टि शब्द से गृहीत मिथ्यादृष्टि समझना चाहिये। तीर्थंकर भगवान के साक्षात दर्शन से तथा दिव्यध्वनि के श्रवण से दर्शन मोह का उपशम आदि हो जाता हो ऐसा नियम नहीं है। समवसरण में सभी भवनवासी. व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देव जाते हैं। समवसरण में क्या उन सबके दर्शनमोह का उपशम आदि हो जाते हैं। यदि ऐसा हो तो असंयत सम्यग्दृष्टियों की संख्या पल्य के असंख्यातवें भाग से कई गणी हो जायगी और पागम से विरोध पाजायगा क्योंकि सर्वार्थसिद्धि अध्याय १ सूत्र ८ की टीका में असंयत सम्यग्दृष्टि की संख्या पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण कही है। -जं. ग. 27-6-63/IX-X/मो. ला. सेठी विहार के समय श्रोताओं का स्वस्थान पर प्रस्थान, समवसरण विघटन; अन्यत्र रचित समवसरण में तत्रस्थ जीवों का प्रागमन शंका-भगवान समवसरण से स्वयमेव ही विहार करते हैं वा अपनी इच्छा से विहार करते हैं ? उनके विहार के साथ क्या समवसरण भी रहता है या पूर्व समवसरण विघट नाता है और आगामी नवीन समवसरण की रचना होती है ? भगवान के विहार के साथ समवसरण में बैठे जीव भी उनके साथ विहार करते हैं या नहीं ? नबीन समवसरण के जीव देवोपनीत होते हैं या जहाँ समवसरण की रचना होती है वहीं जीव आकर अपने-अपने कोठों में बैठ जाते हैं ? समाधान-भगवान् के मोहनीय कर्म का नाश हो जाने से इच्छा का अभाव है। उनका बिहार भव्य जीवों के भाग्य के कारण व कर्मोदय के कारण होता है । कहा भी है ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसि । अरहंताणं काले, मायाचारो व इत्थीणं ॥४४॥ पुण्णफला अरहंता तेसि किरिया पुणो हि ओदइया । मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा ॥४५॥ प्रवचनसार उन अरहंत भगवन्तों के उस समय खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मोपदेश स्त्रियों के मायाचार की भाँति स्वभाविक (प्रयत्न बिना) ही होता है ।।४४॥ अर्हन्त भगवान पुण्यफल वाले हैं और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादि से रहित है इसलिये वह क्षायिकी मानी गई ॥४५॥ विहार के समय समवसरण साथ नहीं रहता, विघट जाता है, प्रागामी स्थान पर पुनः रचना हो जाती भासमवसरण में बैठे सब ही जीव भगवान के साथ विहार नहीं करते. कछ करते हैं। नवीन समवसरण के जीत देवोपनीत नहीं होते किंतु जहाँ समवसरण की रचना होती है वहाँ के ही जीव पाकर अपने-अपने कोठों में बैठ जाते हैं। -जे.सं. 30-1-58/XI/गु. ला. रफीगंज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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