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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] समवसरण में सामान्य केवली शंका-तीर्थङ्करों को समवसरण सभा में सामान्य केवली भी होते हैं । जब वे स्वयं सर्वज्ञ और त्रिकालदर्शी होते हैं तो वहाँ पर उनकी गन्धकुटी व वाणी कैसे खिरती होगी ? समाधान-तीर्थंकरों के समवसरण में सामान्य केवली भी होते हैं ऐसा ति०५० ४/११००-११६१ में कहा है किन्तु उनकी गन्धकुटी व वाणी खिरने के विषय में कुछ नहीं कहा है । गन्धकुटी की रचना होना सम्भव है, किन्तु वाणी खिरने की सम्भावना नहीं है। -जं. स./28-6-56/VI/र. ला. क. केकड़ी समवसरण की २० हजार सीढ़ियों को मनुष्य कैसे पार करके पहुंचते हैं ? शंका-समवसरण को बीस हजार सीढ़ियों पर मनुष्य चढ़कर पहुंचते हैं या पैर रखते ही किसी अतिशय से समवसरण में पहुँच जाते हैं । समाधान-बीस हजार सीढ़ियों पर चढ़कर मनुष्य समवसरण में पहुँचता है किन्तु इतना अतिशय है कि मनुष्य को बीस हजार सीढ़ियों के चढ़ने में कष्ट नहीं होता है। ---जे. ग. 1-4-71/VII/र. ला. क. केकड़ी विहार के समय गन्धकुटी केवली के साथ नहीं जाती शंका- सामान्य केवली की गन्धकुटी उनके साथ हर जगह जाती है या वहीं रह जाती है ? वरांगचरित्र में लिखा है-'धर्मसेन राजा के अंतपुर नगर में वरदत्तकेवली आये वह उनकी वाटिका में शिला पर शिष्यों सहित विराजमान हो गये।' वहाँ गंधकुटी का कथन नहीं है। समाधान-तीर्थकर भगवान के विहार के समय जैसे समवसरण साथ नहीं जाता उसी प्रकार सामान्य केवलियों के विहार के समय गंधकुटी साथ नहीं जाती है। जिस प्रकार समवसरण की रचना शिला पर होती है उसी प्रकार गंधकूटी की रचना शिला पर होती है। वरांगचरित्र में धर्मसेन राजा की वाटिका में भी १००८ वरदत्त केवली का शिला पर विराजमान होने का जो कथन है उससे अभिप्राय शिला पर गंधकूटी का है। -जै. सं. 25-9-58/V/य. बा. हजारी बाग समवसरणस्थ मुनि को केवलज्ञान की उत्पत्ति, पृथक् विहार, दिव्यध्वनि आदि संबंधी विचारणा शंका-तीर्थंकरों के समवसरण में केवलियों को भी संख्या दी है । सो किस प्रकार है ? समाधान-समवसरण में मुनि होते हैं। जो मुनि वहाँ पर क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर घातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान उत्पन्न कर लेते हैं वे केवलज्ञानी समवसरण में होते हैं। तीर्थंकरों के विहार के साथ इनके विहार होने का कोई नियम नहीं है । तीर्थंकरों का विहार होने पर इनका अन्य दिशा में विहार होने में कोई बाधा नहीं है। समवसरण में भिन्न भिन्न समयों पर जो केवली हुए हैं उन सबकी संख्या दी गई है। समवसरण में हर समय केवलज्ञानी के होने का भी कोई नियम नहीं है। जब केवलज्ञानी समवसरण मे पृथक हो जाते हैं तब उनकी दिव्यध्वनि होती है। आचार्यों ने इस सम्बन्ध में कुछ कथन नहीं किया है। मैंने मात्र अपनी बुद्धि से लिखा है। विद्वान इस पर विशेष विचार करने की कृपा करें। -जें. ग. 4-2-71/VII/क. घ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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