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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १८६ अर्थ-भगवान की बाणी को सुनकर जो भव्य जीव थे, उन्होंने जैसा भगवान ने कहा था वसा ही श्रद्धान कर लिया, परन्तु जो अभव्य अथवा दूर भव्य थे वे मिथ्यात्व के उदय से दुषित होने के कारण संसार-बढाने वाली अनादि मिथ्यात्व वासना नहीं छोड़ सके । इससे यह विदित होता है कि अभव्य व मिथ्याष्टि-भव्य दोनों प्रकार के जीव समवसरण में जाते हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि तिलोयपष्णत्ति में जो मिथ्यादृष्टि ब अभब्य का समवसरण में निवेश किया है वह गृहीत मिथ्याष्टि-अभब्य की अपेक्षा कथन किया गया है। -जे.ग. 12-2-70/VII/ब. प्र. स. पटना शंका-मुनिव्रत धारण करके नबवेयक तक जाने वाले मुनि क्या समवसरण में नहीं जाते ? समाधान-ऐसे मुनि के समवसरण में जाने में कोई बाधा नहीं है क्योंकि उनको अरहन्तदेवादि का श्रद्धान है। -जं. सं. 21-11-57/VI/ ने. च. ज. कोटा शंका-ग्यारह अंग नौ पूर्व के पाठी मुनि समवसरण में जाते हैं या नहीं ? समाधान-ग्यारह अंग नौ पूर्व के पाठी मुनियों के समवसरण में जाने में कोई बाधा नहीं है; उनको भी अरहन्तदेवादि में पूर्ण श्रद्धा है। -]. सं. 21-11-57/VI/ ने. च. नं. कोटा अगृहीत मिथ्यात्वी बारह कोठों में जा सकते हैं शंका-क्या भगवान के समवसरण में अन्तरंग व व्यवहार दोनों तरह के मिथ्यादृष्टि जीव नहीं जाते ? समाधान-जिनको अरहंतदेव, निग्रंथगुरु, स्याद्वादमयी शास्त्र व दयामयीधर्म की श्रद्धा है किन्तु उनके दर्शन मोहनीय व अनन्तानुबंधी कर्मों का उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय नहीं हआ है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव भी समवसरण (बारह कोठों में जाते हैं, क्योंकि उनके उपचार से सम्यग्दर्शन है। मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा है'अरहत देवादि का श्रद्धान होने ते वा कुदेवादि का श्रद्धान दूर होने करि गृहीत मिथ्यात्व का अभाव होय है तिस अपेक्षा से वाको सम्यक्त्वी कहा। ( पत्र ४८१) अथवा याके (मिथ्यादृष्टि के) देवगुरुधर्मादि का श्रद्धान नियमरूप होय है। सो विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान को परंपरा कारणभूत है। यद्यपि नियमरूप कारण नहीं, तथापि मुख्य कारण है । बहुरि कारण विर्षे कार्य का उपचार संभवे है । तात मुख्यरूप परम्परा कारण अपेक्षा मिथ्यादृष्टि के भी व्यवहार सम्यक्त्व कहिये है (पत्र ४९०) ।' अतः व्यवहार (उपचार) से सम्यग्दृष्टि किंतु अन्तरंग मिथ्यादृष्टि जीव बारह कोठों में जा सकते हैं। -जं. सं. 30-1-58/XI/गु. ला. रफीगंज समवसरण में मिथ्यादृष्टि का गमन शंका-तिलोयपण्णत्ति अधिकार ४ माथा ९३२ में कहा है कि 'समवसरण में बारह सभाओं में मिथ्यादृष्टि, अभध्य आदि नहीं जाते।' इसका अर्थ मैंने यह समझा था कि तीर्थंकरों के प्रत्यक्ष दर्शन व दिव्यध्वनि श्रवण लाभ होने पर मियम से सम्बग्दर्शन हो जाता है। क्वा बारह सभाओं में सभी सम्बग्दृष्टि जीव होते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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