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________________ १८८ ] जाता है । समवसरण - गमन से गोत्र-परिवर्तन नहीं शंका - तिर्यंच नीच गोत्री होता है । जब वह समवसरण में जाता है तो क्या उसका गोत्र बदल [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान - समवसरण में जाने के कारण तियंचों के उच्च गोत्र का उदय नहीं हो जाता, क्योंकि समयसरण में जाने के कारण गोत्र परिवर्तन नहीं होता है । — जै. ग. 24-7-67/ VII / ज. प्र. म. कु. भव्य मिथ्यात्वी तथा श्रभव्यों का समवसरण में गमन शंका- मिथ्यादृष्टि या अभव्य मनुष्य या देव समवसरण में जाते हैं या नहीं ? समाधान - इस सम्बन्ध में विभिन्न आर्ष प्रमाण हैं जो इस प्रकार हैं। मिच्छाअिभव्वा तैसुमसण्णो ण होंति कइआई । तह य अणज्झवसाया संदिद्धा विविह विबरीदा ॥४॥९३२॥ ति. प. अर्थ - समवसरण के बाहर कोठों में मिध्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते अनध्यवसाय से युक्त, संदेह से संयुक्त और विविध प्रकार की विपरीतताओं से सहित जीव भी इन बारह सभा - कोठों में नहीं होते हैं । भव्य कूटाख्य या स्तूपा भास्वकूटास्ततोऽपरे । यानभव्या न पश्यन्ति प्रभाबन्धीकृते क्षणाः ।। ५७।१०४ ॥ हरिवंशपुराण अर्थ – समवसरण में सिद्धस्तूप के आगे देदीप्यमान शिखरों से युक्त भव्यकूट नाम के स्तूप रहते हैं, जिन्हें अभव्य जीव नहीं देख पाते, क्योंकि उन भव्यकूट नामक स्तूपों के प्रभाव से अभव्यों के नेत्र अन्धे हो जाते हैं । Jain Education International पावशीला विकर्माणाः शूद्राः पाखण्डपण्डकाः । विकलाङ्ग न्द्रियो भ्रान्ताः परियन्ति बहिस्ततः ॥५७॥ १७३ ॥ हरिवंशपुराण अर्थ - पापी, विरुद्ध कार्य करने वाले, शूद्र, पाखण्डी, नपुंसक, विकलाङ्ग, विकलेन्द्रिय तथा भ्रान्त चित्त के धारक मनुष्य समवसरण के बाहर ही प्रदक्षिणा देते रहते हैं । जिनभाषाऽधरस्पन्दमन्तरेण विजृम्भिता । तिर्यग्देव मनुष्याणां दृष्टिमोहमनीनशत् ॥२॥११३॥ हरिवंशपुराण अर्थ - ओठों के बिना हिलाये निकली हुई भगवान की वाणी ने तिथंच मनुष्य तथा देवों का दृष्टि मोह ( मिथ्यात्व ) नष्ट कर दिया था ( इससे यह ज्ञात होता है कि समवसरण में मिध्यादृष्टि जीव जाते हैं और जिनवाणी को सुनकर उनका मिध्यात्व दूर हो जाता है । ) तन्निशम्यास्तिकाः सर्वे तथेति प्रतिपेदिरे । अभव्या दूरभव्याश्च मिथ्यात्बोदयदूषिताः ॥७१।१९८ ।। उत्तर पुराण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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