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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १८५ सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना पाँच के वर्ग से युक्त पांच सौ पच्चीस धनुष है और जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ है। तनुवात के बाहल्य १५७५ की संख्या को पाँचसौ रूपों से गुणा करके पन्द्रहसौ का भाग देने पर जो लब्ध ५२५ धनुष आता है वह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना है। तनुवात के बाहल्य १५७५ की संख्या को पांचसो रूपों से गुणा करके नौ लाख का भाग देने पर जो लब्ध साढ़े तीन हाथ आता है वह सिद्धों की जघन्य अवगाहना है। सिद्ध जीव और तनूवात का परस्पर सम्बन्ध बताने के कारण यह सब कथन व्यवहार नय की अपेक्षा से है जो वास्तविक है, सत्यार्थ है, झूठ नहीं है । -जं. ग. 6-6-68/VI/क्ष. शी. सा. सिद्धों का प्राकार देशोन शरीर प्रमाण है तो उनके प्रात्मप्रदेश लोकप्रमाण कैसे ? । शंका-सिद्धों का आकार अन्तिम शरीर से किंचित् ऊन बतलाया गया है और आत्म-प्रदेश असंख्यात [ लोकप्रमाण ] बतलाये गये हैं सो कैसे ? समाधान-यद्यपि यह जीव असंख्यात प्रदेशी है अर्थात जीव के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर असंख्यात हैं तथापि संकोच-विस्तार के कारण शरीर प्रमाण हो जाते हैं। कहा भी है अणगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा । असमुहदो ववहारा णिच्चयणयदो असंखदेसो वा ॥१०॥ अर्थ-समुद्घात के विना यह जीव व्यवहारनय से संकोच तथा विस्तार के कारण अपने छोटे या बड़े शरीर के प्रमाण रहता है और निश्चय नय से असंख्यात प्रदेश का धारक है । "यपाजितं शरीरनामकर्म तदुदये सति अणुगुरुदेहप्रमाणो भवति जीवः उपसंहार-प्रसर्पतः शरीरनामकर्म. जनित-विस्तारोपसंहार धर्माभ्यामित्यर्थः।" टीका द्रव्यसंग्रह यह जीव पूर्वोपाजित शरीर नाम कर्म के उदय होने पर अपने छोटे या बड़े देह के बराबर होता है। शरीर नाम-कर्म से उत्पन्न हए संकोच तथा विस्तार धर्म के कारण यह अपने देह के प्रमाण होता है। देह के प्रमाण होते हुए भी जीव प्रदेशों की संख्या लोकाकाश के बराबर असंख्यात रहती है। णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धाः। लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादएहि संजुत्ता ॥ १४॥ द्रव्यसंग्रह अर्थ-सिद्ध भगवान ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों से रहित हैं, सम्यक्त्व प्रादि पाठ गुणों के धारक हैं, अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हैं, लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद व्यय से युक्त हैं। "कश्चिदाह-यथा प्रदीपस्य भाजनाद्यावरणे गते प्रकाशस्य विस्तारोभवति तथा देहाभावे लोक प्रमाणेन भाव्यमिति ? तत्र परिहारमाह-प्रदीपसंबन्धी योऽसौ प्रकाशविस्तारः पूर्व स्वभावेनैव तिष्ठति पश्चादातरणं जातं, जीवस्य त लोकमात्रासंख्येयप्रदेशत्वं स्वभावो भवति यस्तु प्रदेशानां संबन्धी विस्तारः स स्वभावो न भवति । कस्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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