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________________ १८४ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : त्रिलोकशिखरादूवं जीवपुदगलयो योः। मैवास्ति गमनं नित्यं गतिहेतोरभावतः॥ नियमसार पृ० ३.३६७ । अर्थ-गति हेतु (धर्मद्रव्य) के अभाव के कारण, त्रिलोक के शिखर से ऊपर जीव और पुद्गल दोनों का कदापि गमन नहीं होता है । इसीलिये श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा है कम्मविमुक्को अप्पा गच्छइ लोयग्गपज्जतं । अर्थ-कर्म से विमुक्त आत्मा लोकाग्र पर्यन्त जाता है। यदि यह कहा जाय कि सिद्ध जीव लोक का द्रव्य है अतः वह लोक से बाहर नहीं जाता सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि आकाश द्रव्य में लोक अलोक का विभाजन धर्मास्तिकाय के कारण हमा है। लोयालोयविभेयं गमणं ठाणं च हेहि । जइ गहि ताणं हेऊ किह लोयालोयववहारं ॥१३॥ नयचक्र गमण-हेतु (धर्मद्रव्य) और स्थिति-हेतु (अधर्मद्रव्य) इन दोनों के कारण लोक अलोक का विभाजन हो रहा है। यदि धर्मद्रव्य अधर्म द्रव्य दोनों नहीं होते तो लोक अलोक का व्यवहार कैसे होता? अर्थात् नहीं होता। धर्म द्रव्य के प्रभाव में सिद्ध भगवान लोक के अन्त में ठहर जाते हैं और लोक के अन्त में तनुवातवलय है प्रतः सिद्धों का निवास तनुवात के अन्त में है। तनुवात का बाहल्य १५७५ धनुष है। ये १५७५ धनुष प्रमाणांगुल से हैं और सिद्धों का अवगाहना उत्सेधांगुल से है अतः १५७५ को ५०० से गुणा करना चाहिये। अर्थात् उत्सेधांगुल की अपेक्षा तनुवात वलय का वाहल्य ७८७५०० धनुष है, सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष है। बाहुबली स्वामी की अवगाहना ५२५ धनुष की थी। ७८७५०० धनुष को ५२५ धनुष से भाग देने पर १५०० लब्ध आता है । अतः उक्त पद्य में "पन्द्रह सौ भाग महान वसै" ऐसा कहा है । अर्थात् महान अवगाहन वाले सिद्ध तनुवात के पन्द्रहसौवें भाग में रहते हैं। ___ सिद्धों की जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ है । अर्थात् सात धनुष का आठवां भाग है । ७८७५०० धनुष का सात बटा हुआ पाठ (६) धनुष से भाग देने पर ६००००० पाते हैं अर्थात् जघन्य अवगाहना वाले सिद्ध तनुवात के नौ लाखवें भाग में रहते हैं । इसीलिये उक्त पद्य में 'नवलाख के भाग जघन्य लसै' ऐसा कहा है। इस सम्बन्ध में निम्न गाथा उपयोगी है पणकदि जुद पंचसयाओगाहणया धणूणि उक्कस्से । आउट्ठहत्यमेत्ता सिद्धाण जहण्णठाणम्मि ॥६॥ तणुवाद बहलसंखं पणसयस्वेहि ताडिवूण तदो।। पण्णरसदेहि भजिदे उक्कस्सेगाहणं होदि ॥७॥ तणुवादवहलसंखं पणसयरूवेहि ताडिवूण तदो। णवलक्लेहि भजिदे जहण्णमोगाहणं होवि ॥८॥ तिलोयपण्णत्ति अधिकार ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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