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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
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"एवमेकसप्तति नामकर्माण्यन्तरवेदनीयं नीचैर्गोत्रं चेति त्रिसप्ततिः। अन्ये मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी-क्षपणं चरम समये वांछंतीति तन्मतेन द्वासप्ततिरुपान्त्यसमये तुचरमसमये तीर्थकरंस्त्रयोदशान्यैश्चद्वादश क्षिप्यन्ते।"
अर्थात्-इस प्रकार ७१ नाम कर्म की प्रकृतियां, कोई एक वेदनीय नीचगोत्र इन ७३ प्रकृतियों का चौदहवें गुणस्थान के उपान्त समय में क्षय होता है । अन्य प्राचार्य मनुष्य गति प्रायोग्यानुपूर्वी प्रकृति का क्षय चरम समय में मानते हैं, उनके मत में ७२ प्रकृति का क्षय उपान्त समय में होता है और तीर्थंकर के तेरह प्रकृतियों का तथा सामान्य केवली के १२ प्रकृतियों का क्षय अन्त समय में होता है ।
श्री शिवकोटि आचार्य ने चौदहवें गुणस्थान के उपान्त समय में ७३ और अन्त समय में तेरह या १२ प्रकृतियों का क्षय होता है ऐसा कथन किया है।
सो तेण पंचमत्ताकालेण खवेदि चरिममारणेण । अणुविष्णओ चरिमसमये सव्वाओ पयडीओ ॥२१२४॥ चरिमसमयम्मि तो सो खवेदि वेदिज्जमाणपयडीओ।
बारस तित्थयरजिणो एक्कारस सेससम्वण्हू ॥२१२५॥ अर्थ-वे अयोगि जिन पंच हस्व स्वर उच्चारण मात्र काल में अनुदय रूप उदय में नहीं आई हई सब प्रकृतियों का इस गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय करते हैं, अर्थात् ७३ प्रकृतियों का क्षय करते हैं। अन्त समय में तीर्थंकर केवली उदयरूप १२ प्रकृतियों का क्षय करते हैं और सामान्य केवली ११ प्रकृतियों का क्षय करते हैं।
-णे. ग. 8-2-68/IX|ध. ला. सेठी, खुरई प्रयोग केवली के भी परमौदारिक शरीर शंका-सयोग केवली गुणस्थान में तो शरीर विद्यमान रहता है इतना तो विवित है, पर क्या अयोगी भगवान के भी पूर्व का औवारिक शरीर नोकर्म रहता है ? स्पष्ट करें।
समाधान--चौदहवें गुणस्थान में परमौदारिक शरीर का सत्त्व तो रहता है, किन्तु औदारिक शरीर नामकर्म का उदय नहीं रहता; क्योंकि योग का अभाव होने से औदारिकशरीर-वर्गणाओं का आना बन्द हो जाता है।
-पत 15-11-75/I/ज. ला. जैन, भीण्डर अयोगी के प्रोवयिक भावस्वरूप योग का प्रभाव हो जाता है, क्षायिकलब्धि से जीव प्रयोगी होता है
शंका- जब आत्मा १३ वें गुणस्थान से १४ ३ गुणस्थान में पहुँचता है तब आत्मा के कौन से गुण में शुद्धता आती है ? जो शुद्धता आती है वह क्षयोपशमभाव रूप या उपशमभावरूप या क्षायिकभावरूप आती है ? क्या यह तीन भाव बिना शुद्धता आ सकती है ? यदि आ सकती है वह कौनसा भाव है ?
समाधान-जब प्रात्मा तेरहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान में पहुंचता है तब योग का अभाव होने से आत्मद्रव्य में शुद्धता आती है । यह शुद्धता न तो कर्म के उपशम से आती है, और न क्षयोपशम से आती है किन्त शरीर आदिक कर्म के उदयाभावरूप से आती है। कहा भी है-"अजोगीणाम कधं भवदि॥ ३४ ॥ खडया
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