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________________ १७८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार लडीए ||३५|| ( टीका) जोगकारण शरीरादि कम्माणं णिम्मूलखए सुप्पण्णत्तादो खइया लद्धी अजोगस्स ।" ( षट्खंडागम पुस्तक ७ ) । अर्थ- जीव अयोगी कैसा होता है ? ||३४|| क्षायिकलब्धि से जीव अयोगी होता है। ।। ३५ ।। योग के कारणभूत शरीरादिक कर्मों के निर्मूलक्षय से उत्पन्न होने के कारण अयोग की लब्धि क्षायिक है । शरीरनामा नामकर्म के उदय से योग उत्पन्न होता है। कहा भी है- 'जोगमग्गणा वि ओवइया, णामकम्मस्स उदीरणोदयजणिदत्तावो ।” ( षट्खंडागम पुस्तक ९ पत्र ३१६ ) । अर्थ - योगमार्गणा औदयिक है, क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा व उदय से उत्पन्न होती है। 'शरीरणाम कम्मोदय जणिद जोगो' ( षट्खंडागम पुस्तक ७ पत्र १०५ ) 1 अर्थ - शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न योग । 'जदि जोगो वीरियंतराइय खओवसमजनिदो तो सजो गिम्हि जोगाभावो पसज्जदे ? ण, उवयारेण खयोवसमियं भावं पत्तस्सओवइयस्स जोगस्स तत्थाभाव विरोहादो ।' अर्थ - यदि योग वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, तो सयोगी केवली में योग के अभाव का प्रसंग आता है ? नहीं आता, क्योंकि योग में क्षयोपशमिकभाव तो उपचार से माना गया है। असल में तो योग औदयिकभाव है और औदयिकयोग का सयोगी केवली में अभाव मानने में विरोध आता है । ( षट्खंडागम पुस्तक ७ पत्र ६६ ) | ( तवियेक्कवज्जणिमिणं थिरसुहसरगदि उरालतेजदुगं । संठाणवण्ण गुरुचउक्क पत्तेय जोगिन्हि ॥ २७१ ॥ ( कर्मकाण्ड गोम्मटसार ) । अर्थ - तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान में औदारिक तेजस व कार्माण शरीर की उदयव्युच्छित्ति होती है । शरीर की उदयव्युच्छित्ति हो जाने से योग का प्रभाव हो जाता है, क्योंकि कारण के अभाव में कार्य का अभाव देखा जाता है । प्रयोग केवली के लेश्या के बिना भी नाम व श्रायु का उदय शंका- अयोग केवली गुणस्थान में लेश्या का अभाव है, फिर गति नामकर्म और मनुष्यायु कर्म का उदय कैसे सम्भव है ? समाधान-गति नाम कर्म व आयु कर्म के बंध में लेश्या कारण होती है । लेस्साणं खलु अंसा, छव्वीसा होंति तत्थ मज्झिमया । आउगबधण जोगा, अट्ठट्ठवगरिसकालभवा ॥ ५१८ ॥ गो. जी. A - जै. सं. 20-6-57/ /स्था. म. लेश्याओं के कुल २६ अंश हैं, इनमें से मध्य के आठ अंश जो कि आठ अपकर्ष काल में होते हैं वे ही श्रायु कर्म के बन्ध के योग्य होते हैं । Jain Education International सेसद्वारस अंसा, चउगइगमणस्स कारणा होंति ।। ५१९ ॥ गो. जी. अपकर्ष काल में होने वाले लेश्याओं के आठ मध्यमांशों को छोड़कर शेष अठारह अंश चारों गतियों के.. गमन के कारण होते हैं । लेश्या के बिना गति आयु आदि कर्मोदय नहीं रह सकता, ऐसा नियम किसी भी आर्ष ग्रन्थ में नहीं दिया है। मनुष्य गति नाम कर्म और मनुष्यायु कर्म जो मनुष्य भव के प्रथम समय से उदय में चले आ रहे थे, उन का उदय मनुष्यभव के अन्तिम समय तक बना रहता है। मनुष्य-भव का क्षय होने पर मनुष्य गति व मनुष्यायु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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