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________________ १७६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : भावबन्ध का सदा काल के लिए अभाव हो गया अर्थात् भाव मोक्ष तो हो गया और द्रव्य मोक्ष के अभिमुख है। अरहंतों के संसरण का प्रभाव होने से वे संसारी नहीं हैं, किन्तु मुक्त भी नहीं हुए क्योंकि चार अघातिया कर्म मौजूद हैं, अतः वे तो संसारी या असंसारी हैं। -जं. ग. 21-11-63/IX/अ. प. ला. सयोगी व अयोगी को उदय प्रकृतियाँ शंका-भारतीय ज्ञान पीठ काशी से प्रकाशित श्री सर्वार्थसिद्धि के पृष्ठ ४५२-४५३ पर १२ प्रकृतियों का ( जिनका उदय चौवह गुणस्थान में भी रहता है) उदय तेरहवें गुणस्थान तक ही क्यों बताया ? समाधान—एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, बस, वादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थकर, उच्चगोत्र, इन १२ प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान में भी रहता है, किन्तु वेदनीय और मनुष्यायु की उदीरणा छठे गुणस्थान तक होती है और शेष दस प्रकृतियों की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान तक होती है। विशेषार्थ में अनुवादक महोदय ने इन दस प्रकृतियों के सम्बन्ध में उदीरणा के साथ 'उदय' शब्द भी लिख दिया। आगम एक महान् समुद्र है उसमें अज्ञानता या असावधानी के कारण भूल हो जाना स्वाभाविक है। भूल ज्ञात हो जाने पर भी अपनी बात को पकड़े रखना, भूल को स्वीकार नहीं करना मोक्षमार्ग में उचित नहीं है । -जै. ग. 16-8-62/ ......./सु. प्र. अयोगी के द्विचरम समय में क्षपित प्रकृतियाँ शंका-षट्खंडागम पुस्तक १० पृ० १६३ पर केवली के द्विचरम समय में ७३ प्रकृतियों का नाश लिखा है जब कि ७२ प्रकृतियों का नाश होता है। समाधान-कुछ प्राचार्यों ने चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में ७२ प्रकृतियों के नाश का कथन किया है और कुछ ने उन ७२ प्रकृतियों में 'मनुष्यगत्यानपूर्वी' प्रकृति मिलाकर ७३ प्रकृतियों के नाश का कथन किया है। दृष्टि-भेद के कारण इन दोनों कथनों में भेद हो गया है। मनुष्यगति व मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन दोनों का एक साथ बंध होता है, क्योंकि बंध की अपेक्षा इन दोनों में अविनाभावि संबंध है। इसलिए जिन आचार्यों की दृष्टि बंध के अविनाभावि संबंध पर रही उन्होंने द्विचरम समय में ७२ प्रकृतियों के नाश का कथन किया है और चरम समय में मनुष्यगति के नाश के साथ 'मनुष्यगत्यानुपूर्वी' प्रकृति के नाश का कथन किया है। मनुष्यगत्यानुपूर्वी का उदय मात्र विग्रहगति में होता है। चौदहवें गुणस्थान में मनुष्यगति का स्वमुख उदय है और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृति का परमुख उदय है अर्थात् स्तिबुक संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियों का द्रव्य स्वजाति उदय प्रकृति रूप परिणम कर उदय में आता है । चौदहवें गुणस्थान के चरम समयवर्ती मनुष्यगत्यानुपूर्वी का द्रव्य द्विचरम समय में मनुष्य गति रूप परिणम जाता है। चौदहवें गुणस्थान के चरम समय में मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृति का द्रव्य सत्ता में नहीं रहता इसलिये कुछ प्राचार्यों ने मनुष्यगत्यानुपूर्वी का क्षय चौदहवें गुणस्थान के विचरम समय में स्वीकार कर ७३ प्रकृतियों का नाश द्विचरम समय में कहा है। इन दोनों मतों का कथन मलाराधना पृ० १८, २८, २९ पर है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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