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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] केवली मोक्ष जाने की अभिलाषा नहीं रखते शंका- केवली मोक्ष जाने को अभिलाषा रखते हैं क्या ? समाधान - केवली मोक्ष जाने की अभिलाषा नहीं रखते हैं । अभिलाषा अर्थात् इच्छा मोहनीय कर्म के उदय के निमित्त से उत्पन्न होती है । केवली भगवान के मोहनीय कर्म का सर्वथा नाश हो जाने से उसके उदय का अभाव है । मोहनीयकर्म के उदय के अभाव में इच्छा भी उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती । कारण के बिना कार्य होने पर अतिप्रसंग दोष आता है । षट्खंडागम पुस्तक १२, पृष्ठ ३८२, अष्टसहस्री पृष्ठ १५९ । [ १७५ सामान्य केवली के मोक्षोत्सव शंका- सामान्य केवली जब मोक्ष जाते हैं तब भी देवादिक आकर कुछ उत्सव मनाते हैं या वे तीर्थंकरों के ही मोक्ष का उत्सव मनाते हैं ? - जै. सं. 18-9-58 / V / बंशीधर समाधान – देवादिक तीर्थंकरों का तो मोक्षोत्सव मनाते ही हैं, किन्तु सामान्य केवलियों के मोक्ष के समय भी देव आकर उत्सव मनाते हैं । कर्मों के बन्धन से छूटना अर्थात् मोक्ष सबको इष्ट है । अतः जब कोई जीव मुक्ति को प्राप्त होता है तो देवादिक को हर्ष होता है और वे आकर उसका उत्सव मनाते हैं । प्रथमानुयोग में इसप्रकार के उत्सवों का कथन पाया जाता है । 'सयोग व प्रयोग केवली' संसारी नहीं हैं शंका-क्या चौदहवें गुणस्थान वाला भी पर समय है ? क्या अरहंत भी संसारी हैं ? Jain Education International - जै. ग. 11-7-66 / 1X / क. घ. समाधान - समयसार गाथा २ में पर समय का लक्षण इसप्रकार कहा है- 'पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं ॥२॥ ' अर्थात्- 'जो जीव पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित है उसको परसमय जानो।' इसकी टीका में श्री १०८ अमृतचन्द्र आचार्य ने इसप्रकार कहा है- 'अनादि प्रविद्यारूप मूल वाले कंद के समान मोह के उदय के अनुसार प्रवृत्ति के प्राधीनपने से दर्शनज्ञान - स्वभाव में निश्चित वृत्तिरूप आत्मस्वरूप से छूट पर द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न मोहराग-द्वेषादि भावों में एकता रूप लीन ही प्रवर्तता है तब पुद्गल कर्म के कार्माणरूप प्रदेशों में ठहरने से परद्रव्य अपने से एकपना कर एक काल में जानता तथा रागादि रूप परिणमता हुआ पर समय ऐसा प्रतीति रूप किया जाता है ।' चौदहवें गुणस्थान में राग-द्व ेष का अभाव है और केवलज्ञान क्षायिक सम्यग्दर्शन आदि गुण प्रगट हैं क्योंकि चार घातिया कर्मों का क्षय हो चुका है अतः चौदहवें गुणस्थान वाले, जो पूर्ण वीतरागी हैं, पर समय कैसे हो सकते हैं । अर्थात् चौदहवें गुणस्थान वाले पर समय नहीं हैं । For Private & Personal Use Only संसरण करने को संसार कहते हैं जिसका अर्थ परिवर्तन है । यह जिन जीवों के पाया जाता है वे संसारी हैं ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय २ सूत्र १० ) । श्री १००८ अरहंत भगवान के मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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