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________________ - ११४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : मिथ्यात्व श्रद्धागुण की पर्याय है । दर्शन मोहनीय कर्म को मिश्र प्रकृति के उदय के कारण दर्शन ( श्रद्धा ) गुण की मिश्र पर्याय ( भाव ) होती है। विशेष के लिए देखो-५० खं० पु० १ पत्र १६६-१६७ । -जं. सं. 28-6-56/VI/र. ला. क. केकड़ी सम्यग्मिथ्यात्व के स्पर्धक देशघाती कैसे हैं ? शंका-धवल पु० ५ पृ० २०७ पर सम्यग्मिथ्यात्व के देशघाती स्पर्धक क्यों लिखे ? सम्यग्मिथ्यात्व तो सर्वघाती है। समाधान-सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में सम्यक्त्व का सम्पूर्ण रूप से घात नहीं होता है इसलिये सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति में देशघाती स्पर्धकों की सिद्धि हो जाती है । धवल पु० १४ पृ० २१ पर कहा भी है सम्मामिच्छत्तलद्धि त्ति खओवसमियं, सम्मामिच्छत्तोदयजणिदत्तादो। सम्मामिच्छत्तफहयाणि सव्वघादीणि चेव, कधं तदुदएण समुप्पणं सम्मामिच्छत उभयपच्चइयं होदि ? ण, सम्मामिच्छत्तफयाणमुदयस्स सव्वाघादित्ताभावादो। तं कुदो णव्वदे। तत्थतणसम्मत्तस्सुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो। सम्मामिच्छत्तवेसघाविफहयाणमुवएण तस्सेव सव्वघादिफद्दयाणमुदया-भावेण उवसमसण्णिदेण सम्मामिच्छत्तमुप्पज्जदि ति तदुभयपच्चइयत्त । धवल पु० १४ पृ० २१ । अर्थ-सम्यग्मिथ्यात्व लब्धि क्षायोपशमिक है, क्योंकि, बह सम्यग्मिध्यात्व के उदय से उत्पन्न होती है। यहाँ पर प्रश्न होता है-सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के स्पर्धक सर्वघाति ही होते हैं, इसलिये इनके उदय से उत्पन्न हुआ सम्यग्मिथ्यात्व उभयप्रत्ययिक (क्षायोपशमिक ) कैसे हो सकता है ? ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समयग्मिथ्यात्व कर्म के स्पर्धकों का उदय सर्वघाति नहीं होता है । पुनः प्रश्न होता है-यह किस प्रमाण से जाना जाता है? आचार्य कहते हैं-सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व रूप अंश की उत्पत्ति अन्यथा बन नहीं सकती। इससे जाना जाता है कि सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के स्पर्धकों का उदय सर्वघाति नहीं होता । सम्यग्मिथ्यात्व के देशघाति स्पर्धकों के उदय से और उसी के सर्वघाति स्पर्धकों के उपशम संज्ञावाले उदयाभाव से सम्यग्मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है, इसलिये वह तदुभय प्रत्ययिक ( क्षायोपशमिक ) कहा गया है । 'सम्मामिच्छादिदित्ति को भावो खोवसमिओ भावो ॥४॥परिबंधिकम्मोवए संते वि जो उवलब्मइ जीव गुणावयवो सो खओवसमिओ उच्चइ । कुदो ? सम्वधादणसत्तीए अभावो खओ उच्चदि । खओ चेव उवसमो खओबसमो, तम्हि जादो भावो खओवसमिओ। ण च सम्मामिच्छत्त दए संते सम्मत्तस्स कणिया वि उव्वरदि, सम्मामिच्छत्तस्स सम्वघादित्तण्णहाणुववत्तीदो। तदो सम्मामिच्छत् खओवसमियमिदि ण घडदे । एत्थ परिहारो उच्चदेसम्मामिच्छत्त दए संते सद्दहणासद्दहणाप्पओ करंचिओ जीव परिणामो उप्पज्जइ । तत्थ जो सद्दहणंसो सो सम्मत्तावयवो । तं सम्मामिच्छत्त दओ ण विणासेदि त्ति सम्मामिच्छत्त खओवसमियं ।" धवल पु० ५ पृ० १९८ । अर्थ-सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह कौनसा भाव है । क्षायोपशमिक भाव है ॥ ४ ॥ प्रतिबन्धी कर्म के उदय होने पर भी जीव के गुण का जो अवयव ( अंश ) पाया जाता है, वह गुणांश क्षायोपशमिक है। यह कैसे संभव है। गुणों के सम्पूर्ण रूप से घातने की शक्ति का प्रभाव क्षय कहलाता है। क्षय सूप ही जो उपशम होता है, वह क्षयोपशम है। उस क्षयोपशम में उत्पन्न होने वाला भाव क्षायोपमिक कहलाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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