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________________ ६६२ जैन दर्शन में संथारा वर्तमान युग में ऐच्छिक मृत्युवरण का प्रश्न बहुचर्चित रहा है। व्यक्ति को स्वेच्छापूर्ण मृत्यु प्राप्त करने का अधिकार है या नहीं यह आधुनिक नीति-दर्शन की एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। इसके साथ ही यह प्रश्न भी बहुचर्चित है कि क्या इच्छापूर्वक शरीर त्याग के सभी प्रयत्न आत्महत्या की कोटि में आते हैं अथवा नहीं? नीति और धर्म-दर्शन के विद्वानों के इस सम्बन्ध में अनेक मत हैं। इसी प्रकार असाध्य रोग से या असह्य वेदना से पीड़ित व्यक्ति अपना जीवन समाप्त कर देना चाहता है तो क्या उसे मृत्युदान देने वाला व्यक्ति हत्या का अपराधी है अथवा वह स्वयं आत्महत्या का दोषी है। आज ये सभी प्रश्न नैतिक एवं धार्मिक दृष्टि से गंभीर चिन्तन की अपेक्षा रखते हैं। प्राचीन सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में ऐच्छिक मृत्युवरण को स्वीकृत किया जाता रहा है। भारतवर्ष में पर्वत या वृक्ष से गिरकर अथवा अपने शीश या अंग विशेष की बलि चढ़ाकर मृत्यु प्राप्त करने की परम्परा प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। ये सभी मृत्यु प्राप्त करने के वीभत्स ढंग हैं जिन्हें अनुचित माना जाता रहा है और इनका विरोध भी हुआ है। लेकिन जैनधर्म में संथारा के रूप में मृत्युवरण की प्रथा प्राचीन काल से लेकर आज तक अबाधगति से चली आ रही है। कभी भी इसका विरोध नहीं हुआ है। यह मृत्यु प्राप्त करने की एक ऐसी कला है जिसे महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। जैन परम्परा में इसे कई नामों से अभिहित किया गया है-संलेखना संधारा, समाधिमरण, संन्यासमरण, मृत्युमहोत्सव, सकाममरण, उद्युक्तमरण, अंतक्रिया आदि। प्रस्तुत निबंध में जैनधर्म में वर्णित संथारा के स्वरूप पर प्रकाश डाला जा रहा है। स्वरूप - संथारा या संलेखना के स्वरूप पर प्रकाश डालने से पहले हम यह जान लें कि वस्तुतः यह है क्या? जीवन की अंतिम बेला में अथवा किसी आसन्न संकटापन्न अवस्था में जिसमें जान जाने की पूरी संभावना है के समय सभी तरह के भावों से मुक्त होकर संपूर्ण आहार त्याग करके आने वाली मृत्यु की प्रतीक्षा करने का नाम ही संथारा है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार “उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा, असाध्य रोग अथवा इसी तरह की अन्य प्राणघातक अनिवार्य परिस्थिति उपस्थित हो जाने पर धर्म की रक्षा अथवा समभाव की साधना के लिए जो देहत्याग किया जाता है वह संथारा के नाम से जाना जाता है।"२ संथारा में जो देहत्याग किया जाता है उसके पीछे देह में उत्पन्न होने वाले कष्टों से बचने का भाव नहीं रहता है। यहाँ व्यक्ति के मन में धर्म-रक्षा का भाव रहता है। मनुष्य जब तक जीवित रहता है वह कुछ न कुछ करता ही रहता है। अपने कार्य-संपादन के लिए उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ - डॉ. रज्जन कुमार' उसे अन्य व्यक्तियों का सहयोग लेना पड़ता है, लेकिन कुछ ऐसे कार्य हैं जिन्हें वह स्वयं अपने दैहिक अंगों की सहायता से करता है। दुर्भाग्यवश यदि वह अपने इस कार्य का संपादन स्वयं नहीं कर पाता है। उन अंगों में पुनः शक्ति का संचार होना संभव नहीं है. वह वनस्पति की तरह जीवित शरीर मात्र है तथा वह जो भी आहार ग्रहण कर रहा है वह शरीर में नहीं लग रहा है अर्थात् उसका शरीर आहार ग्रहण नहीं कर पा रहा है. उसे बचाने के सारे प्रयत्न निष्फल हो चुके हैं। उसका जीवन भार स्वरूप हो गया है। सेवा करने वाले तथा सेवा लेने वाले दोनों थक गए हों, तो ऐसे समय व्यक्ति द्वारा आहार त्याग करने का संकल्प ही संथारा है क्योंकि उस व्यक्ति को यह भान हो जाता है कि शरीर को सेवा देने से कोई लाभ नहीं होने वाला है। उत्तराध्ययन में इसे पंडितमरण कहा गया है। ३ समय-अब प्रश्न उठता है कि संथारा लेने का उपयुक्त अवसर क्या है ? कारण कि अनायास कोई व्यक्ति मरने लगे और यह घोषणा कर दे कि मैं संथारा ले रहा हूँ तो वस्तुतः उसका यह देहत्याग संथारा की कोटि में नहीं आयेगा। इस सम्बन्ध में हम आराधनासार में उद्धृत प्रसंग पर विचार कर सकते हैं-"जरारूपी व्याधि जब देह पर आक्रमण करे, स्पर्श-रस-गंध-वर्ण-शब्द को ग्रहण करने वाली इन्द्रियां अपने विषयों को ग्रहण करने में असमर्थ हो जाएँ, आयुरूपी जल पूर्णरूपेण छीज जाए, शरीर की हड्डियों की संधियों का बंध तथा शिराओं और स्नायुओं से हड्डियों के जोड़ शिथिल हो जाएँ अर्थात् शरीर इतना अधिक कृशकाय हो जाए कि वह स्वयं काँपने लगे आदि अवस्थाएँ ही संथारा ग्रहण करने के लिए उपयुक्त हैं। यहाँ स्पष्ट कर दिया गया है कि पूर्ण निःसहायता की अवस्था में ज्ञान से युक्त होकर ही संथारा ग्रहण किया जा सकता है। इस संबंध में हम आचार्य श्री तुलसी के मंतव्य को भी देख सकते हैं-"व्यक्ति का जीवन जब भारस्वरूप हो जाए (वृद्धावस्था, रोग, उपसर्गादि के कारण) तथा वह अपनी आवश्यक क्रियाओं का सम्पादन ठीक से नहीं कर पाए तो धर्म की रक्षा हेतु संथारा व्रत ले सकता है।"५ इन सबका प्रतिफलित यही निक ला कि व्यक्ति संथारा निम्नलिखित परिस्थितियों में ग्रहण कर संकता है १. शारीरिक दुर्बलता । २. अनिवार्य मृत्यु के प्रसंग उपस्थित होने पर। ३. अनिवार्य कार्यों के सम्पादन नहीं कर सकने की परिस्थिति में ४. धर्म रक्षा हेतु। 9847004 www.iginedibary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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