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________________ 050 -5R. G OS-SesaHOST-03- 65.65 PAR0GPash201000 %atopatad00000000000000000 200520600306065 2065390 Bohto. .9000000000000 1 संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला योग्यता-संथारा कौन ले सकता है और कौन नहीं, यह भी में एक वर्ष तक कोटि सहित अर्थात् निरंतर आचाम्ल करके फिर 40 एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है और इसका समाधान जैन ग्रंथों के आधार मुनि द्वारा पक्ष या एक मास के आहार से अनशन तप किया पर ही करने का प्रयास किया जा रहा है। उत्तराध्ययन में लिखा जाता है। गया है कि संयमशील, जितेन्द्रिय और चारित्रयुक्त सकाम तथा संथारा लेने के क्रम में आहार का त्याग तो किया ही जाता है अकाम मरण के भेद जानने वाले तथा मृत्यु के स्वरूप के ज्ञाता एवं लेकिन साधक को कुछ अन्य उपक्रम भी करने पड़ते हैं। साधक मृत्यु से भयभीत नहीं होने वाले व्यक्ति ही संथारा लेने के योग्य सर्वप्रथम ऐसे स्थान की खोज करता है जहां वह शांतिपूर्वक अपने हैं। यहाँ योग्यता संबंधी विवेचन स्पष्ट है। प्रायः कोई भी मरना तपों का अभ्यास कर सके। इस हेतु वह ग्राम या वन में जाकर नहीं चाहता है। अंतिम क्षण तक व्यक्ति जीना चाहता है। मृत्यु को अचित्त भूमि का अवलोकन करता है और वहाँ कुश, घास आदि स्वीकार करना सबके वश की बात नहीं है। आचार्य वट्टकेर द्वारा अचित्त वस्तुओं की सहायता से संस्तारक बना लेता है।१० इस प्रस्तुत विचार अत्यन्त उल्लेखनीय है-ममत्वरहित, अहंकार रहित, संस्तारक पर आरूढ़ होकर वह समत्व की साधना करता है। वह कषायरहित, धीर, निदानरहित, सम्यग्दर्शन से संपन्न, इन्द्रियों को राग-द्वेष से मुक्त होकर अपने शरीर के प्रति होने वाले ममत्व का अपने वश में रखने वाला, सांसारिक राग को समझने वाला, अल्प भी त्याग करता है। रेंगने वाले जंतु जैसे चींटी आदि प्राणी या कषाय वाला, इन्द्रिय निग्रह में कुशल, चरित्र को स्वच्छ रखने में आकाश में उड़ने वाले पक्षी चील, गिद्धादि जमीन के अंदर रहने प्रयासरत्, संसार के सभी प्रकार के दुःखों को जानने वाला तथा । वाले जन्तु यथा सादि उसके शरीर को कष्ट पहुँचाते हैं तो वह इनसे विरत रहने वाला व्यक्ति संथारा लेने का अधिकारी है। इनसे विचलित नहीं होता है। इनसे होने वाले कष्टों को व्यक्ति सबसे अधिक मोह अपने से ही करता है। सामान्य रूप से समभावपूर्वक सहन करता है।११ वह जन्म और.मरण के संबंध में उसके सारे प्रयत्न चाहे वे परोक्ष हैं या प्रत्यक्ष शरीर को सुख पहुँचाने के उद्देश्य से ही किए जाते हैं। ऐसे शरीर का त्याग करना विचार करता है और दोनों को जीवन के लिए आवश्यक मानता है साधारण बात नहीं है। इसके लिए व्यक्ति को संयमी, ज्ञानी, है। वह यह विचार करता है कि हर्ष, विषाद, जरा आदि शरीर के 350 ही कारण हैं क्योंकि यह शरीर ही जन्म-मरण, सुख-दुःख का भौतिक-अभौतिक सुखों को समझने वाला होना चाहिए। उसमें निम्न त गुणों का समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए। उपभोग करता है।१२ इस प्रकार वह ममत्व रहित होकर मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। जब मरण काल आता है तो बिना किसी भाव के १. सांसारिक आकांक्षाओं से मुक्त। सहजतापूर्वक उसे स्वीकार करते हुए देहत्याग करता है। २. इन्द्रिय जीत। भेद-संथारा के तीन भेद हैं१३-(क) भक्त प्रत्याख्यानमरण, ३. राग-द्वेष से मुक्त। (ख) इंगिनीमरण और (ग) प्रायोपगमनमरण। ४. अल्प कषाय वाला। (क) भक्तप्रत्याख्यानमरण-चारों प्रकार के आहार (अशन, ५. गृहीत व्रतों के महत्त्व को समझने वाला। पान, खादिम, स्वादिम) का त्याग करके समभावपूर्वक देह त्याग ६. जीवन और मृत्यु दोनों को अनिवार्य एवं आवश्यक मानने करने की कला को भक्तप्रत्याख्यानमरण संथारा कहते हैं। इसे वाला। स्वीकार करने वाला साधक अपने शरीर की सेवा स्वयं करता है विधि-जैन ग्रंथों में संथारा लेने की विधि का वर्णन और दूसरों से भी करवा सकता है। इसकी अवधि कम से कम विस्तारपूर्वक हुआ है। यहाँ छह मास से लेकर बारह वर्ष तक के अन्तर्मुहूर्त अधिकतम बारह वर्ष तथा मध्यम अन्तर्मुहूर्त से ऊपर संथारा का विधान मिलता है। समयावधि के अनसार जघन्य. तथा बारह वर्ष से कम है। मध्यम तथा उत्कृष्ट ये तीन प्रकार के संथारा माने गए हैं। इनका (ख) इंगिनीमरण-इस संथारा को ग्रहण करने वाला साधक काल क्रमशः छह मास, १२ मास तथा १२ वर्ष का है। उत्कृष्ट एक क्षेत्र नियत कर लेता है तथा ऐसी प्रतिज्ञा ले लेता है कि इस जिसका कालमान १२ वर्ष का है उसमें साधक विभिन्न प्रकार के । सीमा क्षेत्र से बाहर नहीं जाऊँगा। इस संथारा व्रत को स्वीकार कार्य करते हैं जो इस प्रकार है९-वर्ष के प्रथम चार वर्ष में साधक करने वाला अपने शरीर की सेवा स्वयं करता है किसी अन्य से दुग्ध आदि विकृतियों (रसों) का परित्याग करता है तथा दूसरे चार । नहीं करवाता है। वर्षों में विविध प्रकार का तप करता है फिर दो वर्ष तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास और फिर एक दिन भोजन) करता (ग) प्रायोपगमन मरण-संथारा की इस प्रक्रिया में साधक है। भोजन के दिन आयाम आचाम्ल करता है। तत्पश्चात् ग्यारहवे अपनी संपूर्ण क्रियाओं का निषेध कर देता है। वह अपने शरीर की वर्ष में पहले छह महीने तक कोई भी अतिविकृष्ट (तेला, चोला) सेवा न तो स्वयं करता है और न किसी से करवाता है। तप नहीं करता है तथा बाद के छह महीने में विकृष्ट तप करता है। अतिचार-संथारा के क्षण में व्यक्ति के मन में नाना प्रकार इस पूरे वर्ष में पारणे के दिन आचाम्ल किया जाता है। बारहवें वर्ष के विचार चलते रहते हैं लेकिन जिन विचारों के कारण 00: 00:00 4000०.००
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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