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________________ PARO D USou 2009 । । संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला वि. सं. १९६७ पोषसुदि १४ को पीपाड़ (राजस्थान) में । लगा, अब शरीर काफी अशक्त हो गया है। चलने-फिरने, उठने में आचार्यश्री का जन्म हुआ। भी ग्लानि अनुभव होती है, खाते-पीते अचानक ये प्राण निकल वि. सं. १९७७ माघसुदि-२, १० वर्ष की अवस्था में भागवती जायें, इससे तो श्रेष्ठ है तप, स्वाध्याय, आलोयणा-प्रायश्चित्त आदि दीक्षा ग्रहण की। से जीवन को विशुद्ध बनाकर शरीर के प्रति निर्मोह स्थिति में मित्र की भांति मृत्यु का स्वागत किया जाये। अस्सीवें वर्ष में शारीरिक अस्वस्थता के कारण उन्हें आयुष्य बल की क्षीणता का अनुभव हुआ। अन्तर्दृष्टि से मृत्यु को नजदीक बस इस महान संकल्प के साथ उन्होंने तपस्या (संलेखना) व्रत आता देखकर सहसा उन्होंने चौविहार तेला (३ दिन का उपवास) प्रारंभ किया। बीसवें उपवास के दिन, २७ जनवरी को उन्होंने किया। डॉक्टरों ने तथा शिष्यों, श्रावकों आदि ने तरल आहार चतुर्विध श्री संघ के समक्ष पूर्ण जागृत अवस्था में संथारा ग्रहण ग्रहण करने तथा ग्लुकोज, ड्रिप इंजेक्शन आदि लेने के लिए। किया। श्रावकों को अपने मुख से अन्तिम बार मंगलपाठ सुनाया। बहुत-बहुत आग्रह किया। किन्तु आचार्य श्री अपने लक्ष्य के प्रति । | पूर्ण समाधिभाव पूर्वक १४ दिन का संथारा पूर्णकर ३३ दिन का स्थिर हो चुके थे। उन्होंने सभी को एक ही उत्तर दिया-'मेरे जीवन । संलेखना-संथारा की आराधना कर पंडित मरण प्राप्त किया। की समाधि में कोई विघ्न मत डालो, अब मुझे मौन आत्मलीनता में आपके संथारा की स्थिति में अनेक साधु साध्वियों ने दर्शन ही आनन्द की अनुभूति होती है।' किये। अनेक राजनेता तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी संथारा में अत्यधिक शारीरिक दुर्बलता के बाबजूद भी उनकी मुखमुद्रा आपके दर्शन किये और चेहरे पर जीवन के प्रति कृतकृत्यता और पर तेज और वाणी में अदम्य आत्म विश्वास था। तीन दिन के प्रसन्नता की अनुभूति देखकर धन्य-धन्य कहने लगे। चौविहार तप के बाद उन्होंने यावज्जीवन संथारा के लिए अपनी इस प्रकार संथारा संलेखना के प्राचीन तथा वर्तमान कालिक अन्तर् इच्छा प्रकट की। उनकी समाधिलीन स्थिति देखकर दर्शक । उदाहरणों पर दृष्टिपात करने से एक बात स्पष्ट सिद्ध होती है कि भाव विमुग्ध हो रहे थे। चौथे दिन यावज्जीवन संथारा स्वीकार जीवन के प्रति निर्मोह दशा आने पर ही मन में संथारा का संकल्प किया और बड़े समाधिभाव के साथ संथारे के दसवें दिन निमाज उठता है। जब तक शरीर व प्राणों के प्रति जरा सी भी आसक्ति (राजस्थान) में स्वर्गवासी हुए। रहती है-अन्न-जल का त्याग नहीं किया जा सकता। शरीर के प्रति आचार्य श्री के संथारे की स्थिति में हजारों श्रावकों के पूर्ण अनासक्ति और मृत्यु के प्रति संपूर्ण अभय भावना जागृत होने अतिरिक्त मुसलमान व अन्य धर्मावलम्बियों ने भी उनके दर्शन पर ही संथारा स्वीकार किया जाता है और पूर्ण समाधिपूर्वक किये, और जिसने भी उनकी इस समाधिस्थ प्रशान्त स्थिति को जीवन को कृत-कृत्य बनाया जाता है। त्यागी उच्च मनोबली संत देखा, वह अन्तःकरण से उनके प्रति श्रद्धावनत हो गया। सतियाँ समय-समय पर होते रहे हैं। जिन्होंने जीवन को संथारा | संलेखना द्वारा कृतार्थ किया। प्रवर्तक श्री कल्याणऋषिजी का दीर्घ संलेखना-संथारा इस प्रकार की प्राचीन व वर्तमानकालीन घटनाओं का अभी सन् १९९४ में श्रमण संघ के वयोवृद्ध संत प्रवर्तक श्री । विश्लेषण यही बताता है कि मनुष्य ही नहीं, किन्तु कुछ विवेकवान कल्याणऋषि जी के संलेखना-संथारा की घटना तो सभी ने सुनी है। अन्य प्राणियों में भी जीवन के अन्तिम क्षणों में एक विचित्र उन्होंने पूर्ण सचेतन अवस्था में जीवन का संध्या काल निकट समाधि, शान्ति व सौम्यता की भावना जाग जाती है जो हमें जानकर संलेखना व्रत प्रारंभ किया और बड़े उत्कृष्ट परिणामों के । "समाधिमरण" का अर्थ समझाती है और संथारा संलेखना की साथ प्रसन्नतापूर्वक देहत्याग किया। वे छियासी वर्ष के थे और सार्थकता/उपयोगिता भी बताती है। नियमित रूप में अपनी साधुचर्या का निर्वाह कर रहे थे। उनको १. अन्तकृद्दशासूत्र, वर्ग ३. अध्ययन ८ २. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र, वर्ग-३, अ.१ ३. वि. सं. २०२४, माघ शुक्ला सप्तमी, जनवरी १९६८ ४. निर्वाण के पथ पर-लेखक श्री जयन्ती मुनिजी के आधार से। ५. तपस्वी चतुरलालजी महाराज जीवन चरित्र : प्रकाशक : दरियापुरी आठ कोटी स्थानकवासी जैन संघ, अहमदाबाद। ६. महावीर मिशन, मासिक, दिल्ली, विशेषांक-वर्ष १५, अंक ४ ७. जिनवाणी, श्रद्धांजली विशेषांक में आचार्य श्री के शिष्य श्री गौतममुनिजी के वर्णन के आधार पर। SONOण्डारणपण्यायम
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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