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________________ मामला CEO 0. 0000000000000000350-370900 900.00RPos 0 20-3200303 TOTA6000000000000000%al 1६६० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । तपस्वी जी का जन्म सन् १९०६ में हरियाणा के रिण्ढाणा १६ सितम्बर तक तो शरीर अस्थिसंहनन (हड्डियों का ढाँचा (सोनीपत) ग्राम में हुआ। सन् १९४५ में व्याख्यान वाचस्पति श्री मात्र) रह गया। पसलियों को एक-दो-तीन करके गिना जा सकता मदनलालजी म. के पास भागवती जैन दीक्षा ग्रहण की और | था। पांवों और हाथों की खाल ऐसे लटक गई थी जैसे पुराने वट सन् १९८७, सोनीपत में ७३ दिन के संथारा पूर्वक स्वर्गवास वृक्ष की शाखाएँ लटक जाती हैं.....। किन्तु उनके चेहरे पर काफी हो गया। चमक थी, जो आत्मा की प्रसन्नता प्रकट करती थी। सशक्तता भी आपने जीवन में कोई विशेष लम्बी तपस्याएँ नहीं की, किन्तु थी। ८ अक्टूबर से तो जल का भी त्याग कर दिया था। १० जीवन के संध्याकाल में जिस प्रकार दीर्घ संथारा संलेखना करके अक्टूबर को सुन्दर मुनि के पूछने पर उन्होंने कहा-"मैं अब मृत्यु जीवन को कृतार्थ किया और समूचे विश्व में जैन जीवन शैली को से अतीत पार का जीवन जी रहा हूँ। मेरा मन बहुत प्रसन्न है...... प्रतिष्ठित किया, यह सचमुच एक ऐतिहासिक कार्य हुआ। जिस शान्त तेजोमय शक्ति से जी रहा हूँ। वह वाणी से अगम्य _सन् १९८७ के अगस्त मास में महान तपस्वी जैन सन्त श्री । है..... तुम चाहो तो उसका अनुभव कर सकते हो......." बद्री प्रसादजी म. ने देहली के निकट सोनीपत (हरियाणा) में ७३ ११ अक्टूबर से उन्होंने सम्पूर्ण मौनव्रत धारण कर लिया... दिन का सुदीर्घ संथारा किया था, देश-विदेश की समाचार और १६ अक्टूबर को ७३ दिन के दीर्घ अनशन काल में ऐजेन्सियाँ-पी. टी. आई., यू. एन. आई. आदि के प्रतिनिधियों ने समाधिपूर्वक देह त्याग किया। प्राण त्यागते समय बिल्कुल शान्ति के वहाँ जाकर जो कुछ देखा, समझा, वह उनकी भौतिक समझ से परे । साथ उन्होंने नाभिकेन्द्र को झकझोरा, तीन लम्बे साँस लिये, आँखें था। अनेक डाक्टर, वकील, बड़े-बड़े राजनेता, सामाजिक पूरी खुल गई, केश खड़े हो गये।... एक प्रकाश पुंज निकलता सा कार्यकर्ताओं ने भी तपस्वीजी के दर्शन किये, उनसे बातचीत की। प्रतीत हुआ। शरीर एवं मन की स्थितियाँ देखीं तो सभी ने यह अनुभव किया इस महान तपस्वी के संथारा का प्रत्यक्ष दर्शन करने वाले कि शरीर की स्थिति अत्यन्त क्षीण व निराशाजनक होते हुए भी सैंकड़ों हजारों जनों ने अध्यात्मशक्ति को सहज अनुभव किया, उनके चेहरे पर तेज-ओज था। उनकी वाणी में दृढ़ता और जीवन अन्तःकरण में यह भावना भी कि-'हे प्रभु ! हमें भी इसी प्रकार के प्रति अनासक्ति एवं मृत्यु के प्रति अभय भावना बड़ी अद्भुत व का शान्तिपूर्वक समाधिमरण प्राप्त हो।" किन्तु कुछ सांप्रदायिक आश्चर्यजनक थी। ऐसा लग रहा था कि शरीर की क्षीण दीवट में भावना रखने वाले, धर्म और अध्यात्म नाम से ही नफरत करने दिव्य आत्म-ज्योति दीपक दीप्तिमान है। वाले लोगों ने इस संथारा पर टीका टिप्पणी भी की। प्रश्नचिन्ह भी तपस्वी जी के अन्तेवासी श्री सुन्दरमुनिजी की रिपोर्ट के । लगाये...... किन्तु फिर भी इस भौतिकवादी युग में यह एक ऐसा अनुसार १९ जुलाई से ४ अगस्त के बीच सिर की चोट, फिर हार्ट प्रत्यक्ष उदाहरण था जिसने सभी को अध्यात्म की अगम्य-शक्ति के के एनाजाइना पेन, तथा बाद में दस्त आदि के कारण उनकी शरीर समक्ष नतमस्तक कर दिया। स्थिति अत्यन्त क्षीण हो चुकी थी। ४ अगस्त को डॉक्टरों ने उनके मनुष्य शरीर और इन्द्रियों के प्रति किस प्रकार निरपेक्ष शरीर का परीक्षण करके कहा-मुनिजी के शरीर का जल खत्म हो होकर शान्ति एवं समाधिपूर्वक जी सकता है, और मर भी चुका है। अतः तुरन्त ग्लूकोज दिया जाये अन्यथा २४ घंटा से अधिक जीवित रह पाना संभव नहीं है। किन्तु उस स्थिति में सकता है। इस विषय पर सोचने को बाध्य करता है। मृत्यु का मुनिश्री बद्रीप्रसाद जी ने बार-बार अपने शिष्यों से आग्रह करके सहज वरण करने की यह अध्यात्म प्रक्रिया-शान्ति मृत्यु का मार्ग प्रशस्त करती है। कहा-"अब मुझे न कोई दवा की जरूरत है, और न ही अन्य किसी चीज की। मैं जीवन भर के लिए अन्न को त्यागकर । आचार्य श्री हस्तीमलजी म. का आदर्श समाधिमरण शान्तिपूर्वक आत्मस्थ होना चाहता हूँ। मुझे शास्त्र सुनाओ और भक्ति आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज इस युग के एक अत्यन्त पूर्ण स्तोत्र आदि का निरन्तर पाठ कराओ।" प्रभावशाली चारित्रनिष्ठ बहुश्रुत आचार्य हुए हैं। उन्होंने जीवन भर ५ अगस्त को उन्होंने संथारा व्रत ग्रहण किया। उसके २६ घंटा सामायिक-स्वाध्याय, व्यसन मुक्त जीवन के लिए हजारों हजार बाद उनकी शारीरिक स्थिति में एकाएक परिवर्तन आने लग गया। । व्यक्तियों को प्रेरणा और मार्गदर्शन दिया। जैन धर्म के इतिहास पहले जबान लड़खड़ा रही थी, किन्तु अब वह स्पष्ट और लेखन का एक विशिष्ट कार्य किया। शरीर से सामान्य कृशकाय थे। सशक्त हो गई। पहले उनका चेहरा मुझाया था, किन्तु २६ घंटा बाद | परन्तु उनका मनोबल अद्भुत था। वैसे जीवन में तेले से अधिक जैसे भीतर से आभा दमक कर फूटकर बाहर आ रही है, मुख । का दीर्घ तपश्चरण नहीं कर सके, किन्तु जीवन के संध्याकाल में, मुद्रा तेजस्वी दीखने लगी। शरीर- स्थिति में यह आश्चर्य- अत्यधिक शारीरिक अस्वस्थता के बाबजूद अचानक ही इतना जनक रासायनिक परिवर्तन आ गया, जो शरीर विज्ञान की समझ अद्भुत आत्मबल जागृत हुआ कि तप संलेखना करते हुए से परे था। यावज्जीवन संथारा की स्थिति में पहुँच गये। 200 GEO 0:00:00.00000 ferral V.000 4690-9OHDMUSA
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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