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________________ संथारा - संलेषणा : समाधिमरण की कला " “पांचमुं देवलोक वि. १८० मुकटा" उपस्थित दर्शकों का अनुमान है कि संभव है उन्होंने अपने आगामी भव के विषय में जो अनुभूति हुई "पाँचवा देवलोक का मुक्ता नामक १८० विमान", यह प्रकट करना चाहा। GG २२ अक्टूबर की अन्तिम रात्रि लगभग चार बजे जहाँ तपस्वी जी का संथारा बिछा था, उस कोटडी में अचानक एक दिव्य प्रकाश सा प्रविष्ट हुआ और कुछ ही क्षणों में धीरे-धीरे प्रकाश तुप्त हो गया। २५ अक्टूबर को मध्यान्ह में ४२ दिन के संलेखना, संथारा पूर्वक उनका स्वर्गवास हो गया । ५ महासती कंकुजी म. का संधारा पूज्य माता महासती कंकुबाई महाराज के हृदय में संधारा की प्रबल भावना थी। वे अनेक बार मुझसे कहते थे-“मैं अन्तिम समय में संधारा के बिना नहीं चली जाऊँ आप मुझे अवश्य सहयोग करना। माता का जीवन ही नहीं, मरण भी मंगलमय बना देने वाला पुत्र ही सुपुत्र होता है इसलिए आप मेरा ध्यान रखना।" उन्होंने जीवन में अनेक लम्बी-लम्बी तपस्याएँ कीं उदर व्याधि से पीड़ित होने पर भी तप के प्रति मन में गहरी निष्ठा थी। अनुराग था। अन्तिम समय में जब शरीर घोर व्याधि से ग्रस्त हुआ और जीवन की स्थिति डॉवाडोल लगने लगी तब आपने अत्यन्त धैर्य व साहस के साथ कहा- " अब मेरा अन्तिम समय निकट दीख रहा है, अतः मुझे दवा आदि कुछ नहीं चाहिए। सब कुछ छोड़कर अब मुझे संथारा करवा दीजिए। मेरा जीवन सफल हो जायेगा।" मैंने देखा - पूज्य महासती जी का शरीर एक तर्फ व्याधि से पीड़ित था। डॉक्टर आदि दवा के लिए आग्रह कर रहे थे। दूसरी तर्फ वे व्याधियों की वेदना से असंग जैसे होकर कहते हैं- "बीमारी तो शरीर को है, शरीर भुगत रहा है; मेरी आत्मा तो रोग-शोकपीड़ा से मुक्त है। अब मैं आत्मभाव में स्थित हूँ, मुझे शरीर व्याथि की कोई पीड़ानुभूति नहीं है, मुझे संथारा पचखा दो, मेरा मन प्रसन्न है। मेरी आत्मा प्रसन्न है। " शरीर के प्रति इस प्रकार की अनासक्ति तभी होती है जब साधक के मन में भेद-विज्ञान की ज्योति जल उठती है, शरीर और आत्मा की पृथक्ता का अनुभव होने लगता है और शरीर के सुख-दुःख से मन असंग अप्रभावित रहता है। गुप्ततपस्वी श्री रोशनलालजी म. तपस्वी श्री रोशनलालजी म. का संथारा यद्यपि बहुत लम्बा नहीं हुआ, किन्तु उनके जीवन में संलेखना -तप का बड़ा आश्चर्यजनक रूप देखने को मिलता है महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे गुप्त तपस्वी थे। लम्बी-लम्बी तपस्याएँ चलती रहतीं, श्रावक दर्शन करने आते और चले जाते, परन्तु किसी को उनके दीर्घ तप का पता नहीं चलता। जब पारणा हो जाता, तब लोग आश्चर्यपूर्वक 88 Jahodo 201 9/80 ६५९ " सुनते, आज तपस्वीजी का ३२ या ३०ब दिन के उपवास का पारणा हुआ। गुप्त तप के साथ शान्ति, समभाव और स्वाध्यायलीनता भी अद्भुत थी। जीवन में उन्होंने अनेक लम्बी तपस्याएँ व एकान्तर तप किये। एक बार उनके उदर में भयंकर दर्द उठा, दर्द असह्य होता चला गया तब अचानक उनके मन में संकल्प उठा - " अब इस शरीर का कोई भरोसा नहीं है, कब रोगों का आक्रमण हो जाय। अतः कल से ही मैं बेले-बेले निरन्तर तप करूँगा।" इस वज्र संकल्प का आश्चर्यकारक प्रभाव हुआ कि थोड़ी ही देर में पेट का असह्य शूल शान्त हो गया। दूसरे दिन ही आपने बेले-बेले तप प्रारंभ कर दिया, जो निरन्तर १२ वर्ष तक चलता रहा। तप का प्रभाव सन् १९६५ में मेरा चातुर्मास सिकन्द्राबाद था। उस समय तपस्वी रोशनलालजी म. जोधपुर में चातुर्मास कर रहे थे। उस समय पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था। जोधपुर सैनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ठिकाना था पाकिस्तान ने जोधपुर को अपने बमों का निशाना बनाया। सिकन्द्राबाद में भी जोधपुर के अनेक लोग रहते थे। जोधपुर पर बम गिरने की बातें सुन-सुनकर वे बड़े चिन्तित हो रहे थे। एक दिन मैंने अपने प्रवचन में कहा- जोधपुर के आसपास चाहे जितने बम गिरें, परन्तु जोधपुर शहर को कोई खतरा नहीं हो सकता। लोगों ने पूछा - "क्यों ?" मैंने कहा- "वहाँ तपस्वी रोशनलालजी म. का चातुर्मास है। जहाँ पर ऐसे घोर तपस्वी सन्त विराजमान हो, वहाँ पर शत्रु के भयंकर प्रहार भी निष्फल हो जाते हैं।” आश्चर्य की बात है कि जोधपुर पर पाकिस्तान के विमानों ने सैकड़ों बम गिराये, परन्तु सभी के निशाने चूकते गये, जोधपुर शहर को कुछ भी क्षति नहीं हुई। तपस्वी रोशनलालजी म. का यह प्रत्यक्ष तपः प्रभाव सभी लोगों ने अनुभव किया। वि. सं. १९८२ में श्रीनगर (दिल्ली) में जब वे अत्यधिक अस्वस्थ हो गये तो शिष्यों को संकेत कर उन्होंने चौविहार संथारा पचख लिया। २ दिन के स्वल्पकालिक संथारा पूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया। तपस्वी जी के मन में समभाव और जीवन के प्रति अनासक्ति का जो स्वरूप मैंने देखा वह किसी विरले ही सन्त में दिखाई देता है। तपस्वी बद्रीप्रसाद जी म. का संथारा तपस्वी श्री बद्रीप्रसाद जी म. का संधारा इस दशक में बहुत ही चर्चित रहा है। इस संथारे की प्रतिक्रिया लगभग सर्वत्र अच्छी प्रभावनाशील रही।
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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