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________________ JAVAJAGUA0000000000000 d UBE 10.0000000000005 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । करती है। आहार में शुद्धता और सन्तुलन तथा शरीर और मन की हस्तक्षेप या बाधा उत्पन्न करना प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ना है शोधन प्रक्रिया सन्निहित है जो शरीर और मन के दोषों को दूर कर जो जीवन की गति को विखण्डित करता है। आज मनुष्य विज्ञान शरीर और मन का संशोधन करती है। इस प्रकार के शोधन से । और भौतिकवाद के प्रवाह में बह कर प्रकृति से दूर होता जा रहा जिन दोषों का निराकरण होता है उससे चेतना केन्द्र भी निर्मल बन { है। उसका आकाश के नीचे खुली हवा में रहना, जीवों से तादात्म्य जाते हैं। आहार ही क्रियमाण शरीर की संरचना में मुख्य भूमिका । स्थापित करना, प्राकृतिक संरचनाओं से प्रेम करना स्थगित हो गया का निर्वाह करता है। मनुष्य के स्थूल शरीर से आगे सूक्ष्म शरीर है। इससे मनुष्य में उसके स्वाभाविक गुणों का विकास अवरुद्ध हो भी होता है जो तेजोमय होता है। चित्त की शुद्धि से तेजस शरीर गया है और उसमें पशुता हावी होती जा रही है। इसे भले ही का निर्माण होता है जो मनुष्य के आध्यात्मिक शक्ति के विकास में वैज्ञानिक विकास की संज्ञा दी जाय, किन्तु वास्तव में यह मानव सहायक होता है। विकास की गति में अवरोध है। यह देखा गया है कि मात्र शाक-सब्जी खाने से शाकाहार की । वर्तमान भोगवादी संस्कृति एवं विकसित भौतिकवाद आधुनिक मल भावना विकसित नहीं होती है। यह तब तक सम्भव नहीं है। वैज्ञानिक विकास की देन है जो पाश्चात्य संस्कृति पर आधारित है। जब तक शाकाहारी मनुष्य भावनात्मक रूप से इस प्रक्रिया से नहीं । इसमें आध्यात्मिक विकास या आत्मोन्नति की बात करना मूर्खता या जुड़ जाता है। संसार में अनेक लोग हैं जो मांस जैसे खाद्य पदार्थों । पोंगा पंथी माना जाता है। फिर भी मनुष्य उस लक्ष्य या ध्येय को को छूते भी नहीं हैं, केवल शाकाहार ही उनका दैनिक आहार है। अंश मात्र भी प्राप्त नहीं कर पाया है जो जीवन विकास के लिए किन्तु मात्र शाकाहारी होने से वे सात्विक या अहिंसक वृत्ति वाले आवश्यक है तथा मानवीय उच्चादर्शों का प्रतीक है। यदि ऐसा हो नहीं बन जाते। उनके अन्तःकरण में जब तक शाकाहार की मूल पाता तो निश्चय ही वैज्ञानिक विकास की सार्थकता हो जाती। भावना अहिंसा भाव और सात्विकता का विकास नहीं होता है तब वर्तमान में हमारे जीवन में जो सांस्कृतिक विकृति आई है उसने तक शाकाहार की सार्थकता नहीं है। संसार में अधिसंख्य प्राणि ऐसे हमारे आचार, विचार और आहार को भी अपने दायरे में समेट हैं जिनका जीवन केवल शाकाहार पर निर्भर है। अतः औपचारिक लिया है। अतः इससे हमारा आचार, विचार और आहार विकृत रूप से वे शाकाहारी हैं। मनुष्य भी शाकाहारी होते हुए भी अपने होना स्वाभाविक है। इसके दुष्परिणाम भी हमारे सम्मुख आने लगे भावों और क्रिया में पूर्ण सात्विक नहीं हो पा रहा है। उनके दैनिक हैं। प्रकृति में निरन्तर असन्तुलन बढ़ता जा रहा है, पर्यावरण का आहार क्रम में मांसाहार वर्जित है, किन्तु क्या उनके जीवन में निरन्तर विनाश हो रहा है तथा प्रकृति एवं अन्य संसाधनों में तीव्र हिंसा भाव की वर्जना हो पाई है। वह अपने आचार, विचार और गति से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इस प्रदूषण ने मनुष्य के जीवन दैनिक व्यवहार में क्या उन द्रव्यों की वर्जना कर पाया है जिनके । में भी जबर्दस्त घुसपैठ की है जिससे जीवन में अहिंसा का स्थान मूल में हिंसा की प्रवृत्ति छिपी है। आज ऐसे अनेक प्रसाधन व्यवहार | हिंसा ने ले लिया है। समाज में हिंसा, नफरत, अराजकता तथा में प्रचिलत हैं जिनका निर्माण हिंसा का सहारा लिए बिना सम्भव द्वेषभाव तेजी से पनप रहा है। आपसी सौहार्द का स्थान व्यक्तिवाद नहीं है, उनका प्रयोग वही शाकाहारी मनुष्य धड़ल्ले से कर रहा है। | लेता जा रहा है। जिससे समाज में असन्तुलन बढ़ता जा रहा है। ऐसी अनेक आधुनिक औषधियाँ हैं जिनका आविष्कार एवं शाकाहार अहिंसा भावना की ही अभिव्यक्ति है जो प्राणि जगत् निर्माण निरीह पशुओं की प्राणाहुति पर आधारित है। उनमें { में एक-दूसरे के प्रति आदर और निष्ठा के भाव को बढ़ाती है। औषधियों का नियमित सेवन आज मनुष्य की नियति बन गई है। निरामिष आहार सेवन करने में मनुष्य का नैसर्गिक जीवन से स्वतः अतः उन शाकाहारियों में न तो हिंसा भाव की वर्जना हो पाई और सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। शाकाहार मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता न ही सात्विकता का भाव विकसित हो पाया। इससे शाकाहार की है, अतः प्रकृति की रक्षा इससे स्वतः हो जाती है जिसका सीधा मूल भावना स्वतः बाधित हो गई और रह गई केवल प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता है। अतः निरामिष आहार या शाकाहार औपचारिकता। में केवल आहार या क्या खाना और क्या नहीं खाना ही महत्वपूर्ण आज भौतिकवाद अपने चरमोत्कर्ष पर है, क्योंकि विज्ञान के नहीं है, महत्व है मानसिक सात्विकता एवं मानसिक चेतना के साथ उसकी संगति है। वैज्ञानिक धरातल पर हुए आविष्कार और उत्थान का। भक्ष्याभक्ष्य का विचार तो व्यक्तिगत रुचि पर भी विज्ञान ने मनुष्य को सुख-सुविधा के अनेक साधन उपलब्ध कराए | आधारित होता है, किन्तु जब भावना, सात्विकता, मानसिक भावों हैं उनसे मनुष्य को शारीरिक या भौतिक सुख तो अवश्य उपलब्ध आदि का सम्बन्ध उससे होता है तो मनुष्य सामान्य धरातल से हुआ है, किन्तु मानसिक शान्ति और आनन्दानुभूति से वह कोसों उठकर उच्चता के आदर्श तक पहुँच जाता है। जिससे मनुष्य में दूर रहा। वस्तुतः विज्ञान से जीवदया, प्रेम आनन्द का कोई रिश्ता स्वतः ही हिताहित विवेक जाग्रत हो जाता है। अतः यह असंदिग्ध नहीं। आज विज्ञान का आधार केवल बुद्धि कौशल, भौतिकवादी रूप से कहा जा सकता है कि मनुष्य के जीवन निर्माण एवं जीवन प्रवृत्ति और प्रकृति का दोहन कर अपनी सत्ता का विस्तार करना । विकास में आहार विशेषतः निरामिष या शाकाहार का महत्वपूर्ण है। इससे प्रकृति में असन्तुलन स्वाभाविक है। प्रकृति के प्रवाह में । स्थान है। 8 2000 E0 पyaaaa एलपOCIOUSwe 10000hesh000.00000000000000000000000000000000000000000000000000000000 000000000 185600000000000000000000000000000000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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