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________________ OGO0:0:0:0:02401005 1000 । जन-मंगल धर्म के चार चरण ५९५।। मनुष्य के उदर में खाए हुए आहार के पाचन की सीमित क्षमता Jहै। शील, संयम, विनय आदि आचरण शील भावों के लिए होती है। अतः अधिक मात्रा में खाने, खाद्य पदार्थों को अधिक मनःस्थिति का विकास नहीं होता है। उसके लिए उसका शरीर ही भूनने, तलने या मसाले की भरमार करने से पाचन शक्ति पर प्रधान होता है। इससे भिन्न मनुष्य के पास शरीर से परे उन्नत अनावश्यक दबाव पड़ता है। जिससे उस खाए हुए आहार का मानसिकता एवं मानसिक चेतना होती है जो उन्नत, शुद्ध एवं पाचन ठीक से नहीं हो पाता। इसी प्रकार स्वाभाविक रूप से गुरु । सात्विक भावों को उत्पन्न करती है। इसी चेतना के संस्कार प्राण (गरिष्ठ) मांस-मछली आदि पदार्थों को भी पचाने में उदर को शक्ति को विकसित एवं सन्तुलित रखते हैं। इसी से संकल्प शक्ति कठिनाई होती है। इसलिए आहार के चयन पर समुचित ध्यान देने का भी विकास होता है जो चित्त शुद्धि के साथ-साथ आहार शुद्धि की आवश्यकता है। जो अभक्ष्य है उसे तो खाया ही नहीं जाय और / की भावना को विकसित करती है। जो भक्ष्य है उसे अभक्ष्य बनाकर नहीं खाया जाए। यही कारण है कि मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि जीवन विकास का सोपान उसमें हिताहित विवेक अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक होता है। शाकाहार मात्र अपने आहार में शाक-सब्जियों के समावेश तक। उसमें कुछ भी करने से पूर्व समीक्षा करने की चेतना है, वह अपने सीमित नहीं है, वह आचार की मर्यादा, मानसिक भावों में अहिंसा संस्कारों का निर्माण स्वयं करता है और अपनी अन्तरात्मा की की व्यापकता, प्राणियों के प्रति करुणा एवं समानता की भावना ऊँचाइयों को छूने की क्षमता रखता है। वह संकल्प कर सकता है तथा जीवन के प्रति आस्था का अनुष्ठान है। यह जीवन में अहिंसा और शाश्वत जीवन मूल्यों को प्राप्त करने के लिए अपने लक्ष्य के आचरण के उस चरण का प्रतिपादक है जिसमें प्राणि मात्र के निर्धारित कर सकता है। यही उसकी मौलिक विशेषता है जो उसे प्रति समता एवं ममता के भाव को तो मुखरित करता ही है, प्राणि | संसार के सभी प्राणियों में गरिमा प्रदान करती है। मात्र से मनुष्य के मैत्री भाव को प्रोत्साहित करता है। शाकाहार के जीवन की सार्थकता के लिए संयम पूर्ण जीवन यापन मनुष्य प्रयोग से मनुष्य का मानसिक धरातल इतना उन्नत हो जाता है कि का मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए चित्त की शुद्धि और तदर्थ उसमें स्व-पर का भेद-भाव मिट जाता है और वह उस सीमा रेखा समुचित उपाय अपेक्षित है। शाकाहार चित्त की शुद्धि करता है, वह को पार कर परहित चिन्तन में ही लगा रहता है। "जीवो जीवस्य निर्मल परिणामों-भावों को उत्पन्न करता है। इससे संयम की प्रेरणा भोजनम्”-'जीव के लिए जीव का जीवन' उस मिथ्या और भ्रम । मिलती है और उस ओर प्रवृत्ति होती है, अतः असंदिग्ध रूप से मूलक धारणा का पोषक है जिसमें जीवन के अस्तित्व की शाकाहार संयम की भूमिका है। इस सन्दर्भ में उपनिषद् का वाक्यअवधारणा ही सदा के लिए तिरोहित हो जाती है। अतः जीव जीव “आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः" महत्वपूर्ण है। आहार शुद्ध होता है तो का भोजन नहीं है, तब जीव मनुष्य का भोजन कैसे हो सकता है? चित्त शुद्ध होता ही है। जब चित्त शुद्ध होता है तो विवेक जाग्रत जीव उसका सहयोगी है जो सम्पूर्ण प्राणि जगत् में प्रकृति की रहता है, भाव शुद्ध रहते हैं और स्वतः ही संयम की भावना प्रबल व्यवस्था के अनुरूप रहने और जीने का अधिकार रखता है। किसी होती है। आहारगत संयम को स्वतः बल मिलता है। यही जीवन की भी प्राणि के जीने के अधिकार को छीनना मानवीय मूल्यों और वास्तविकता है जो मनुष्य को प्रकृति के समीप ले जाता है और सिद्धान्तों के विरुद्ध है। मनुष्य के भोजन के लिए दूसरे निरीह प्रकृति की व्यवस्था में उसे ढालता है। वस्तुतः यदि देखा जाय तो प्राणियों का वध और घात करना मानवीयता के उच्चादर्शों का पति स्वयं व्यवस्था है सन्तलन है और सात्विक जीवन का हनन और मनुष्य के पाशविक होने को सिद्ध करता है। अनवरत प्रवाह है। यद्यपि सिंह आदि कुछ हिंसक प्राणियों में अन्य प्राणियों को आचरण की शुद्धता मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक है मारकर खाने का वृत्ति पाई जाती है। बड़ा मछलिया भा छाटा। जिसमें आहारगत संयम, आहार की मर्यादा और पवित्रता का मछलियों को निगल जाती हैं। जलचर मगर भी मांस भक्षी होता है। स्वतः समावेश है। इसके अन्तर्गत चाहे जो मत खाओ, चाहे जिस इसीलिए "जीवो जीवस्य भोजनम्" जैसे विकृत उक्तियों का कथन समय और चाहे जिसके साथ मत खाओ का निर्देश अंधा आग्रह किया गया जो विकृत मानसिकता की परिचायक है। सम्पूर्ण प्राणि नहीं है। यह प्रकृति का विधान है जो आहारगत संयम का निर्देश जगत् की संरचना पर गौर किया जाए तो हम पाते हैं कि सभी करता है। सात्विक आहार की अवधारणा भी इसी पर आधारित प्राणियों में देह या शरीर ही प्रधान है, आहार, निद्रा, भय और अनान में अशित पण चेतना मैथुन ही उसकी वृत्ति है जो मनुष्य और अन्य प्राणियों में समान है। मन, बुद्धि और इन्द्रियों को प्रदूषण से मुक्त तो रखता ही है मनुष्य जिजीविषा सभी प्राणियों में समान रूप से पाई जाती है, कामैषणा के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास के पर्याप्त प्राणियों की स्वाभाविक वृत्ति की परिचायक है। अवसर भी प्रदान करता है। शाकाहार असत् से सत्, पशुता से पशु जीवन मात्र चतुर्विध प्रवृत्ति-आहार, निद्रा, भय और मनुष्यता की विकास यात्रा है जो सतत अंधकार से प्रकाश की मैथुन के लिए होता है। पशु के पास बुद्धि और विवेक नहीं होता ओर उन्मुख करती हुई हिंसा से विरति और अहिंसा से रति उत्पन्न शुष्क तष्तष्प्ताल तक MADEdidroineतिoिng205000000000000000PROPPESeisaidseomp3300- PROPahPRAMETHOBHA RRORS-00000000000000000000000000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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