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________________ ५३० में परिणमित होता है, यह अक्षय-सौख्य अर्थात् परम आनन्द को प्राप्त करता है (प्र, सार. १९५) । आत्मा का ध्यान करने वाले श्रमण निर्मोही, विषयों से विरक्त, मन के निरोधक, और आत्म स्वभाव में स्थित होकर आत्मा का ध्यान करते हैं ऐसी शुद्धात्मा को प्राप्त करने वाले श्रमण सर्व घातिया कर्मों का नाशकर सर्वज्ञ सर्व दृष्टा हो जाते हैं (१९६.१९७)। और तृष्णा, अभिलाषा, जिज्ञासा एवं संदेह रहित होकर इन्द्रियातीत अनाकुल परिपूर्ण ज्ञान से समृद्ध परम आनन्द का अनुभव-ध्यान करते रहते हैं (१९८) उनके इस परम आनन्द की तुलना में इन्द्रिय जन्य संसार सुख अकिंचित्कर-अकार्यकारी होता है, उसी प्रकार जैसे अंधकारनाशक दृष्टि वाले को दीपक प्रयोजन हीन होता है (गाथा ६७ ) | आत्म श्रद्धान विहीन व्रत क्रियाएँ अकिंचित्कर-संक्षेप में आत्मा के साथ कर्म-बन्ध मिथ्यात्व, असंयम, कषाय एवं योग से होता है। जबकि कर्म से निष्कर्म का मार्ग प्रशस्त होता है ज्ञान सूर्य के उदय से जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से अंधकार विलीन हो जाता है उसी प्रकार आत्मा के क्षितिज पर ज्ञान सूर्य उदित होते ही मोह-अंधकार विलीन हो जाता है। निष्कर्म का सूत्र है आत्म-श्रद्धान ज्ञान और चारित्र । भेद-विज्ञान पूर्वक आत्मानुभव से आत्म श्रद्धान एवं आत्मोपलब्धि होती है, जिससे मोह ग्रंथि का क्षय होता है। शुद्धात्मा के निरन्तर ध्यान रूप तप से राग-द्वेष का जनक-कारक चारित्र मोह का क्षय होकर आत्मा परम आनन्दमय होता है। छह काया पर वह दया करे तन-मन से। दे सहायता दुखियों को तन से धन से ॥ कर तिरस्कार मारे न किसी को ताना ॥१॥ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ इस क्रम में व्रत क्रिया के शुभोपयोग रूप अनेक अनेक पडाव आते हैं और विलीन होते जाते हैं। यह तभी कार्यकारी होते हैं जब दृष्टि शुद्धात्मा पर होती है। आत्म श्रद्धान विहीन भाव-रहित व्रत- क्रियाएँ निष्कर्म मार्ग में अकिंचित्कर होती हैं। आगम में कहा भी है कि सम्यक्त्व बिना करोड़ों वर्ष तक उग्र तप भी तपै तो भी बोधि की प्राप्ति नहीं होती" (दर्शन पा. ५ ) । इसी प्रकार चारित्र रहित ज्ञान, दर्शन रहित साधु लिंग तथा संयम रहित तप निरर्थक है ( शीलपाहुड ५) । भाव सहित द्रव्य लिंग होने पर कर्म का निर्जरा नामक कार्य होता है, केवल द्रव्य लिंग से नहीं । भाव रहित नग्नत्व अकार्यकारी है। हे, धैर्यवान् मुने, निरन्तर नित्य आत्मा की भावना कर (भाव पा. ५४-५५) । UPIT दे आश्रय आश्रय-हीन दीन जो आये । बेरोजगार को काम में तुरत लगाए । गिरता हो स्तर से ऊँचा उसे उठाना ॥ ३ ॥ उपसंहार जो व्यक्ति अपनी आत्मा को जैसा देखता है, वैसा ही पाता है, आत्मा को शुद्ध जानने वाला शुद्धात्मा को पाता है और अशुद्ध जानने वाला शुद्धात्मा को पाता है (स. सार १८६ ) | कर्म से निष्कर्म होने हेतु परम पारिणामिक भाव आश्रित शुद्धात्मा का ज्ञान-ध्यान कर सभी परम सुख को प्राप्त करें, यही कामना है। दयालु है दया धर्म का मूल असूल पुराना ॥ श्रावक नही पीता पानी कभी अनछाना ॥टेर । पता : के/ओ. ऑरियन्ट पेपर मिल्स अमलाई - ४८४११७ (म. प्र. ) भूखे को भोजन प्यासे को दे पानी रोगी को औषध दे कहलाये दानी ॥ अनुकंपा द्वारा धार्मिक लाभ कमाना ॥ २ ॥ बस दयालुता का सादा अर्थ यही है। समता का सेवन करना व्यर्थ नहीं है। "मुनिपुष्कर" श्रावक ले श्रमणों का बाना ॥ ४ ॥ -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि (पुष्कर- पीयूष से) D. DOD
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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