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________________ अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर जैन दर्शन का मनोविज्ञान मन और लेश्या के सन्दर्भ में जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहाँ मनोविज्ञान की आज अपेक्षा न हो। इसका मूल कारण है कि विकार- तनाव अर्थात् त्रासमय प्राणी का मन अस्थिर अस्पष्ट होने के फलस्वरूप वह अनेक आपदाओं-विपदाओं से ग्रसित व्यथित है, अस्तु उसके जीवन की प्रत्येक क्रिया-प्रक्रिया और प्रतिक्रिया में असन्तोष और भय परिलक्षित है, आवेग आक्रोश समाविष्ट है। मन के विज्ञान-तन्त्र पर जब मनन- चिन्तन किया जाता है तो अनगिनत समस्याओं से सम्पृक्त वही व्यक्ति निश्चय ही अपने को इन समस्याओं से अलग-थलग पाता है। वास्तव में जो विज्ञान अर्थात् विशिष्ट ज्ञान आदर्शवादिता से परे यथार्थता से अनुप्राणित जीव के चेतन अथवा अचेतन मन के समस्त व्यवहारों-क्रियाओं का सम्यक् अध्ययन- विश्लेषण अर्थात् उसके रूप-स्वरूप का उद्घाटन करने में सक्षम हो वही वस्तुतः मनोविज्ञान है। जैनमनोविज्ञान किसी प्रयोगशालायी निकष पर नहीं अपितु आगम-मनीषियों / ध्यान-योगियों की सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि पर अवस्थित है। प्रस्तुत आलेख में 'जैन दर्शन का मनोविज्ञान मन और लेश्या के सन्दर्भ में' नामक सामयिक एवं परम उपयोगी व्यापक विषय पर संक्षिप्त चर्चा करना हमारा मूलाभिप्रेत है। दृष्ट और अदृष्ट इन द्वय क्रियाओं में व्यक्ति का जीवन संचरण होता है। दृष्ट क्रियाओं का सीधा सम्बन्ध मन की चैतन्य अवस्था से रहा करता है जबकि अदृष्ट क्रियाएँ मन की अचेतन अवस्था के परिणामस्वरूप है। मनुष्य की ये समस्त क्रियाएँ उसकी मनोवृत्तियाँ कहलाती हैं। जैनदर्शन में मनोवृत्ति के मुख्यतः तीन रूप बताए गए हैं १. ज्ञान २. वेदना ३. क्रिया। इन तीनों का ही एक दूसरे से शाश्वत तथा प्रगाढ़ सम्बन्ध है क्योंकि जो कुछ ज्ञान जीव को होता है, उसके साथ-साथ वेदना और क्रियात्मक भाव भी स्थिर होने लगते हैं। प्रत्यक्षीकरण, संवेदन, स्मरण, कल्पना और विचार संवेदन नामक मनोवृत्तियाँ ज्ञान रूपी मनोवृत्ति सन्देश उत्साह स्थायी भाव और भावना नामक मनोवृत्तियाँ, वेदना तथा सहज क्रिया, मूलवृत्ति, स्वभाव, इच्छित क्रिया, चारित्र नामक मनोवृत्तियाँ, क्रिया मनोवृत्ति के अन्तर्गत आती हैं। इन त्रय मनोवृत्तियों के पल्लवन-विकसन से प्राणी का अन्तर्मन प्रबल होता है और संकल्प शक्ति स्थिर रहती है। जैनदर्शन अध्यात्म अर्थात् आत्मवादी दर्शन है। यहाँ आत्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप अवस्थादि पर गहराई के साथ चिन्तन किया गया है। जैनदर्शन में आत्मा को अनन्त ज्ञान-दर्शन मय माना गया Passaged -डॉक्टर राजीव प्रचडिया, एडवोकेट (एम. ए. (संस्कृत), बी. एस. सी. एल. एल. बी. पी. एच. डी. ) है।" इसके अमूर्त्तिक अर्थात् वर्ण गन्ध-रस स्पर्श आदि मूर्ति का अभाव होने के कारण साक्षात् दर्शन उपलब्धि हेतु जीव को 'इन्द्रियों' का अवलम्बन अपेक्षित रहता है। वास्तव में इन्द्रियाँ आत्मा के अस्तित्त्व की परिचायक हैं तथा आत्मा के द्वारा होने वाले संवेदन का साधन भी इन्द्रियाँ पाँच भागों में विभक्त हैं २. चक्षु इन्द्रिय ४. रसना इन्द्रिय १. जीव का शब्द ३. मिश्र शब्द । ५३१ १. श्रोत्र इन्द्रिय ३. घ्राण इन्द्रिय ५. स्पर्शन इन्द्रिय । २ ये पाँचों इन्द्रयाँ दो-दो प्रकार की होती हैं२. भावेन्द्रिय ३ १. द्रव्येन्द्रिय इन्द्रियों की आगिक संरचना अर्थात् इन्द्रियों का बाह्य पौगलिक रूप द्रव्येन्द्रिय तथा आन्तरिक क्रियाशक्ति अर्थात् आन्तरिक चिन्मय रूप भावेन्द्रिय कहलाती है। जैनाचार्यों ने इनके पुनः भेद-प्रभेद किए हैं। द्रव्येन्द्रिय 'निवृत्ति' और 'उपकरण' तथा भावेन्द्रिय लब्धि और उपयोग दो भागों में प्रभेदित हैं। उपर्युक्त पाँच इन्द्रियों में से चार इन्द्रियाँ अर्थात् श्रोत्र, घ्राण, रसना और स्पर्शन प्राप्यकारी तथा चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी होती है। इसका मूल कारण है कि ये चारों इन्द्रियाँ बाह्य पदार्थों के अर्थात् अपने-अपने विषय के संसर्ग से उत्तेजित होकर अपने ग्राह्य विषय को ग्रहण करती हैं किन्तु चक्षु इन्द्रिय संसर्ग की अपेक्षा प्रकाश एवं रंगादि के माध्यम से ही संवेदन करती है। इन्द्रियों के भेद-प्रभेदों के उपरान्त यह जानना भी आवश्यक हो जाता है कि इन इन्द्रियों के क्या-क्या विषय- व्यापार हैं ? श्रोत्रेन्द्रिय का विषय 'शब्द' है । ६ शब्द तीन प्रकार के हैं २. अजीव का शब्द कुछ विचारक शब्द के सात प्रकार मानते हैं। वास्तव में शब्द एक प्रकार के पुद्गल परमाणुओं का कार्य है जिसके परमाणु सम्पूर्ण लोक में सदा व्याप्त रहते हैं। चक्षु इन्द्रिय का विषय रंग-रूप है। मुख्यतः पाँच प्रकार के रंग होते हैं - काला-नीला-पीलालाल-श्वेत। इन पाँचों के सम्मिश्रण से अन्य शेष रंग प्रकट होते हैं। तृतीय इन्द्रिय है प्राणेन्द्रिय, जिसका व्यापार नासिका द्वारा गन्ध प्राप्त कराना है। गन्ध दो प्रकार की होती हैं- सुगन्ध और दुर्गन्ध । रसनेन्द्रिय का विषय है रसास्वादन। अम्ल, लवण, कषैला, कटु, और तीक्ष्ण ये पाँच प्रकार के रस होते हैं। स्पर्शानुभूति में स्पर्शन
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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