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________________ अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर कर्म से निष्कर्म का आधार : मोहग्रंथि का क्षय - संसारी जीवात्माओं के अन्दर निरन्तर संघर्ष चल रहा है। एक ओर है, प्रतिपक्षी कर्मोदय से उत्पन्न मोह-राग-द्वेष रूपी कषायों के विभाव भाव जो निरन्तर आकुलता व्याकुलता उत्पन्न कर पर-द्रव्यों से अनन्त सम्बन्ध स्थापित कराते हैं। दूसरी ओर है, आत्मा की पारिणामिक भाव और कर्मों के क्षयोपशमादि से उत्पन्न ज्ञान-दर्शन अर्थात् जानने देखने की अल्प शक्ति। उसके साधन हैं-भेद विज्ञान की विचार दृष्टि और ज्ञान-दर्शनात्मक उपयोग। लक्ष्य है-कर्मशत्रुओं का नाश कर स्वावलम्बी शुद्धात्मा का पर्याय रूप उपलब्धि और तदनुसार स्वभाव रूप धर्म की प्राप्ति विचार-दृष्टि मोहित भ्रमित होकर मोहादि कषायों का साथ देकर अनन्त संसार की वृद्धि करती है। यदि ज्ञान शक्ति स्व-पर के भेद-विज्ञान द्वारा आत्म स्वभाव का पक्ष लेकर उस ओर झुकती / ढकती है तब विभाव-विकार उदयागत होकर भी निष्प्रभावी हो जाते हैं और कर्म शक्ति की वृद्धि को रोकते हैं। फिर ज्ञानात्मक उपयोग का आत्मा से निरन्तर सम्पर्क / अनुभव से पूर्व संग्रहीत कर्म-शक्ति का नाश होता है। इस प्रक्रिया में आत्मा को किसी पर-द्रव्य या कषायादि विभाव-भावों के प्रति कुछ करना / रोकना नहीं पड़ता, मात्र सहज स्वाभाविक रूप से तटस्थ रहकर जानना और साक्षी होना होता है। बनना भी नहीं पड़ता क्योंकि बनना बनाना कर्त्ता-कर्म का जनक है जो स्वभाव के प्रतिकूल है। ऐसा ज्ञायक होते-होते एक समय ऐसा आता है जब स्व-होय, ज्ञान-ज्ञायक के एकत्व से कर्म सेना दुर्बल होते-होते धराशायी हो जाती है। आत्मा अन्त में सिद्ध जैसा शुद्ध होगा। ज्ञान और ज्ञायक दृष्टि से सिद्ध और संसारी जीव समान है अन्तर है 'ज्ञेय' की भूमिका का सिद्ध भागवान का ज्ञेय उनकी स्वयं आत्मा है। संसारी जीव का ज्ञेय पर वस्तुएँ और अनन्त पर-संसार है। सिद्ध भगवान निरन्तर धारावाही रूप से स्व-संवेदन स्वरूप आतिथ्य आत्मानंद में लीन हैं जिसके समक्ष इन्द्रियजन्य सुख अकिंचित्कर, श्रणिक-वाधित है। अतः सिद्ध जैसा होने के लिए आवश्यक है कि भेद-विज्ञान द्वारा अपने ज्ञान और ज्ञान दर्शनात्मक उपयोग को आत्मानुभव और आत्म-ज्ञान जैसा स्वभाव-रूप होने देकर शुद्धात्मा को उपलब्ध करें। शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोह ग्रन्थि का क्षय-अनन्त संसार का कारण मोह ग्रन्थि का क्षय शुद्धात्मा की उपलब्धि से होता है इसके लिए पर- द्रव्य में कुछ करना नहीं पड़ता। अपने ज्ञान स्वभाव को जानकर अपने में अपने द्वारा अपने को ही अनुभूत करना होता है। ऐसा करने से शुद्धात्मा की उपलब्धि के साथ ही मोह ग्रंथि या मिध्यात्व का क्षय हो जाता है। इस सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की गाथा १९१ से १९४ पठनीय और मननीय है जिनका अर्थ इस प्रकार है 'मैं पर का नहीं हूँ पर मेरे नहीं है में एक ज्ञान हूँ जो इस प्रकार ध्यान करता है, वह आत्मा ध्यान काल में शुद्धात्मा का 226000002 ५२९ ध्याता होता है (गाथा १९१ ) । मैं आत्मा को ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय, महा पदार्थ, ध्रुव, अचल, निरालम्ब और शुद्ध मानता हूँ ( गाथा १९२ ) । शरीर, धन, मुख-दुख, अथवा शत्रु-मित्रजन जीव के ध्रुव नहीं हैं। ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है (गाथा १९३) । जो व्यक्ति ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार हो या निराकार, मोह दुग्रंथि का क्षय करता है (गाथा १९४ ) । समयसार गाथा ७३ में भी आचार्य कुन्दकुन्द ने क्रोधादिक सर्व आश्रवों की निवृत्ति हेतु इसी मार्ग की पुष्टि की है, जो इस प्रकार है अहमेक्को खलु सुद्धो निम्ममओ णाणदंसण समग्गो । तम्हि हिदो तच्चित्तो सव्वे एदे खयं णेमि ॥७३॥ अर्थ - निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ, ज्ञान दर्शन पूर्ण हूँ; उस स्वभाव में रहता हुआ, उस चैतन्य में अनुभव लीन होता हुआ मैं इन क्रोधादिक सर्व आश्रवों को क्षय को प्राप्त कराता हूँ। मोह ग्रंथि के क्षय हेतु अन्य उपाय भी प्रवचनसार में वर्णित हैं, जो प्रकारांतर से एक ही गन्तव्य को ले जाते हैं। 'जो अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण और पर्याय रूप से जानता है, वह अपनी आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य नाश को प्राप्त होता है, क्योंकि अरहंत का इस प्रकार ज्ञान होने पर सर्व आत्मा का ज्ञान होता है (गाथा ८०) ' जो निश्चय से ज्ञानात्मक ऐसे अपने को और पर को निज-निज द्रव्यत्व से सम्बद्ध जानता है वह मोह का क्षय करता है। इस प्रकार भावात्मक स्व-पर विवेक से मोह क्षय होता है (गाथा ८९ / ९० ) ।' 'जिनशास्त्रों के अभ्यास द्वारा पदार्थों के सम्यक प्रकार से भाव -ज्ञान द्वारा भी मोह क्षय होता है (गाथा ८६) ।' इस प्रकार शुद्धात्मा की उपलब्धि, अरहंत भगवान की प्रतीति सहित आत्मा के ज्ञान, भाव-भासित स्व-पर विवेक एवं जिनशास्त्रों द्वारा पदार्थों के ज्ञान से दर्शन मोह ग्रंथि का क्षय होता है। इससे स्पष्ट है कि मोह-क्षय के लिए आत्म-ज्ञान-विहीन कषायादिक विभावों को मंद करने, रोकने या उनके विकल्पों में उलझने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता किन्तु सहज-शुद्ध ज्ञातादृष्टा रूप आत्मानुभव एवं शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोह क्षय होता है। मोह सरोवर सूखने पर क्रोधादिक कषाय रूपी मगरमच्छों का निरंतरित अस्तित्व भी अल्पकालिक रह जाता है। मोह ग्रंथि के क्षय का फल-दर्शन मोह के क्षय से स्वतंत्र आत्म दर्शन होता है और क्षोभ रहित अनाकुल सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रकट होता है। आगम के अनुसार प्रथम दर्शन मोह का क्षय - अभाव होता है पश्चात् क्रमिक रूप से चारित्र मोह का क्षय होकर आत्मा की शुद्ध ज्ञान-दर्शन पर्याय प्रकट होती है जो परावलम्बन का नाश करती है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'जो मोह ग्रन्थि को नष्ट करके, राग-द्वेष क्षय करके, सुख-दुख में समान होता हुआ श्रमणता
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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