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________________ Pad | अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर ४९३ अनेकता में एकता ही अनेकान्त है -आचार्यश्री विजय इन्द्रदिन्न सूरिजी म. जैन धर्म और दर्शन ने विश्व को अनुपम और अद्वितीय आचार्य हरिभद्र सूरि और हेमचन्द्रचार्य जैस जैन दार्शनिकों ने सिद्धान्त अर्पित किए हैं। वे सिद्धान्त इतने शाश्वत, कालजयी, अन्य दर्शनों में भी इस अनेकान्तत्व को ढूंढ़ा है। बुनियादी, जीवंत और युगीन हैं कि विश्व के लिए इनकी वीतराग स्तोत्र में हेमचन्द्राचार्य ने कहा हैप्रासांगिकता सदैव बनी रहती है। जैन-दर्शन के इन्हीं शाश्वत सिद्धान्तों में से एक महान, चुनिंदा और व्यावहारिक सिद्धान्त इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्य, विरुद्ध गुम्फितं गुणैः। अनेकान्तवाद या स्याद्वाद है। भारतीय दार्शनिक अखाड़ों में जैन सांख्यः संख्यावतां मुख्यो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ दर्शन का यही सिद्धान्त सर्वाधिक चर्चित रहा है। कहीं-कहीं पर यह सांख्य दर्शन प्रधान-प्रकृति को सत्त्व आदि अनेक विरुद्ध गुणों जैन धर्म का पर्याय और पहचान भी बन गया है। किसी ने इसकी से गंफित मानता है। इसलिए वह अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं प्रशंसा की, किसी ने निंदा। किसी ने आदरणीय बताया और किसी कर सकता। ने घृणास्पद। आदि शंकराचार्य ने इसे संशयवाद होने का आरोप अध्यात्मोपनिषद् में भी यही बात की गई हैलगाया। फिर भी इस सिद्धान्त की गहराई तक पहुँचने का प्रयल बहुत । चित्तमेकमनेकं च रूपं, प्रामाणिकं वदन्। कम विद्वानों ने किया है। अनेकान्त पर जो भी आरोप लगे हैं वे योगो वैशेषिको वापि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ अनेकान्त को अनेकान्त दृष्टि से न समझने पर ही लगे हैं। न्याय-वैशेषिक एक चित्त को अनेक रूपों में परिणत मानते हैं। जैन धर्म का यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिससे विश्व के सभी | अतः वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं कर सकते। विवाद सुलझ सकते हैं। सभी युद्ध और झगड़े समाप्त हो सकते हैं। विज्ञानस्यैकमाकारं, नानाकारकरम्बितम्। इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए समग्र विश्व में सुख, शांति इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ और समृद्धि का साम्राज्य सर्वत्र छा सकता है। विज्ञानवादी-बौद्ध एक आकार को अनेक आकारों से सन्मतितर्क के कर्ता ने तो यहां तक कहा है कि युक्त मानते हैं। इसलिए वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं कर जेण विणा लोगस्सवि, ववहारो सव्वहा ण णिघडइ। तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स॥ जातिवाक्यात्मकं वस्तु, वदन्ननुभवोचितम्। जिसके बिना विश्व का कोई भी व्यवहार सम्यगरूप से घटित भट्टो वापि मुरारिर्वा, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ नहीं होता। उस त्रिभुवन के एकपात्र गुरु अनेकान्तवाद को मेरा ___ भट्ट और मुरारी के अनुयायी प्रत्येक वस्तु को सामान्य नमस्कार है। विशेषात्मक मानते हैं। अतः वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं अनेकान्त की नींव पर ही जैन धर्म और दर्शन की रचना कर सकते। हुई है। जैन धर्म के सभी नियम-उपनियम और आचार परम्परा की अबद्ध परमार्थेन, बद्धं च व्यवहारतः। आधारशिला यही सिद्धान्त है। अनेकान्त को बिना अच्छी ब्रुवाणो ब्रह्मवेदान्ती, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ तरह समझे जैन धर्म और दर्शन का व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो ब्रह्म वेदान्ती परमार्थ से ईश्वर को बद्ध और व्यवहार से उसे सकता। अबद्ध मानते हैं। अतः वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं कर भारत का दार्शनिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि सकते। दार्शनिक विवाद के क्षेत्र में जैन-दर्शन बहुत बाद में उतरा है। इसलिए जैन दार्शनिकों को सभी दर्शनों का तटस्थ और तुलनात्मक ब्रुवाणा भिन्न-भिन्नार्थान्, नय - भेदव्यपेक्षया। अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ था। उन्होंने सभी दर्शनों के प्रतिक्षिपेयु! वेदाः, स्याद्वादं सार्वतन्त्रिकम्॥ अध्ययन के बाद जैन-दर्शन को दार्शनिक अखाड़ों में उतारा था। वेद भी स्याद्वाद का खंडन नहीं कर सकते क्योंकि वे प्रत्येक परिणामतः जैन-दर्शन अन्य दर्शनों की अपेक्षा अधिक सांगोपांगता अर्थ या विषय को नय की अपेक्षा से भिन्न और अभिन्न दोनों और परिपूर्णता लिए हुए हैं। उसमें कहीं भी दार्शनिकत्व की न्यूनता मानते हैं। इस प्रकार प्रायः सभी मतावलम्बी स्याद्वाद को स्वीकार दृष्टिगत नहीं होती। करते हैं। JocoG सकते। Jain Education Intematonal For Private & Personal Use Only www.sainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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