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________________ PORace 36500 १४९४ अनेकान्त या स्याद्वाद को एक प्रखर सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान करने का श्रेय जैन-दर्शन और जैन दार्शनिकों को जाता है। जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही देखना अनेकान्त है। जैन धर्म के सम्यक्त्व-सम्यकदर्शन का मूलाधार भी यही है। जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में न देखने से विकृति उत्पन्न होती है। प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष होते हैं। मनुष्य की दृष्टि किसी एक पक्ष पर ही टिकती है। किसी एक ही पक्ष को देखना और उसी का आग्रह रखना एकान्त है। विश्व की द्वन्द्वात्मक स्थिति का मूल कारण यही एकान्त है। जहाँ-जहाँ एकपक्षी और एकांगी दृष्टि होगी वहाँ-वहाँ विवाद और कलह होगा। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जहाँ-जहाँ विवाद और कलह होगा वहाँ-वहाँ एकांगी दृष्टि होगी। वहाँ एक ही पक्ष का आग्रह होता है और वह आग्रह जब दुराग्रह में परिवर्तित होता है तब विग्रह का जन्म होता है। किसी एक पक्ष से वस्तु पूर्ण नहीं हो सकती। अगर वह पूर्ण होगी तो दो पक्ष से ही पूर्ण होगी। इसलिए दो पक्ष प्रत्येक पूर्ण वस्तु की वास्तविकता है। यह उसकी सच्चाई है फिर दोनों पक्षों के स्वीकार में संकोच क्यों होना चाहिए। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । अनेकता में एकता हमारे गणतंत्र देश का बहुप्रचलित सूत्र है। यह अनेकता में एकता अनेकान्त ही है। संसार में अनंत अनेकताएँ-भिन्नताएँ हैं। बावजूद इन सभी अनेकताओं और भिन्नताओं में कोई न कोई ऐसा तत्व है जो एक है, जो समान है, जिसे सभी स्वीकार करते हैं। इन अनेकताओं में से जो एकता का तत्त्व है, उसे ढूंढ़ लो और उसी को स्वीकार कर लो। एकता स्वीकार करने का यह अर्थ नहीं कि अनेकान्त अनेकता का विरोध करता है। नहीं, अनेकान्त कभी किसी का विरोध नहीं करता। जहाँ विरोध होगा वहाँ अनेकान्त नहीं रहेगा। अनेकान्त निर्विरोध है। जहाँ विरोध होगा वहीं एकान्त आकर खड़ा हो जाएगा। विरोध का अर्थ ही एकान्त है। अनेकान्त तो वस्तु को देखने-परखने की एक दृष्टि प्रदान करता है। इस तरह अनेकान्त के अनेक व्यावहारिक पहलू है। संसार के कल्याण के लिए ही सर्वज्ञ अरिहंत ने इन सिद्धान्तों की प्ररूपणा की थी। उनके प्रत्येक सिद्धान्त में संसार के सुखी होने का रहस्य छिपा हुआ है। चाहे वह अहिंसा का सिद्धान्त हो या अपरिग्रह का या अनेकान्तवाद का। इन शाश्वत सिद्धान्तों को अधिक से अधिक व्यावहारिक जगत् में लाने का उत्तरदायित्व जिन भगवान के अनुयायी प्रत्येक जैन का है। सत्य की खोज -डॉ. जगदीश चन्द्र जैन प्राचीन शास्त्रों में सत्य की महिमा का बहुत बखान किया गया । बलहीन और असुरगण असत्य का आश्रय लेने के कारण बलवान है। उपनिषद् का वाक्य है-सत्यं वद, धर्म चर, यानी सच बोलो बन गये। अंत में देवों ने भी यज्ञ का आयोजन किया और उसके और धर्म का आचरण करो। लेकिन सत्य है क्या? सत्य तक कैसे । बल से उन्हें विजय प्राप्त हुई। अन्यत्र यज्ञ के अतिरिक्त तीन वेद, पहुँच सकते हैं? चक्षु, जल, पृथ्वी और सुवर्ण आदि को सत्य कहा है। इससे जान शंकराचार्य का कथन है-'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' अर्थात् केवल । पड़ता है कि उस समय सत्य का अस्तित्व के अर्थ में प्रयोग ब्रह्म ही सत्य है और बाकी सब मिथ्या है। लेकिन ब्रह्म क्या है? प्रचलित था, यथार्थ भाषण से इसका सम्बन्ध नहीं था। ऋग्वेद में स्तुति के अर्थ में ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया गया है। वस्तुतः सच या झूठ बोलने की कल्पना आदिम कालीन जातियों अथर्ववेद में ब्रह्म शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग मिलता है। वेदों की उपज नहीं है। यह कल्पना उस समय की है जब मनुष्य की के सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य सायण ने विविध अर्थों में ब्रह्म शब्द आर्थिक परिस्थितियों में उन्नति होने के कारण कायदे- कानून और का प्रयोग किया है। धार्मिक व्यवस्था की आवश्यकता महसूस होने लगी। पूर्व काल में यज्ञ-याग-प्रधान वैदिक ग्रन्थों में यज्ञ को ही सत्य कहा है। यह व्यवस्था नहीं थी क्योंकि मानव का जीवन बहुत सीधा-सादा एवं तत्कालीन समाज में यज्ञ-यागों के माध्यम से ही मनुष्य परमात्मा के सरल था। वह नैसर्गिक शक्तियों में कल्पित देवी- देवताओं को प्रसन्न साथ सम्बन्ध स्थापित करने में सक्षम माना जाता था। देवासुर- करने के लिए यज्ञ-याग का अनुष्ठान करने में ही अपनी सारी शक्ति संग्राम में, कहते हैं कि देवगण सत्य का आश्रय लेने के कारण लगा देता था। यज्ञ-याग का यही आर्थिक मूल्य भी था। SAHARA GoD9 Har Education fotemalonaliace 66 D R rivate & Personal use Only O www.jainelibrary.org RDER o
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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