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________________ इतिहास की अमर बेल ४६१ । जैनागम महोदधि के प्रकांड व्याख्याता आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज -आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि 069 आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज अपने युग के एक विशिष्टि से सम्मानित किया गया। वि. सं. २००३ में पंजाब संघ ने आपको प्रज्ञास्कन्ध महापुरुष थे। उन्होंने अपनी प्रतापपूर्ण प्रतिभा की पंजाब प्रान्त का आचार्य पद प्रदान कर आचार्य बनाया। संवत् तेजस्विता से जन-जन को आलोक प्रदान किया था। वे ज्ञानयोगी २००९ में स्थानकवासी जैन समाज का बृहद् साधु सम्मेलन सादड़ी थे। जैनागम साहित्य के तलस्पर्शी अध्येता थे। उन्होंने आगम में सम्पन्न हुआ। उस समय शारीरिक कारण से लुधियाना (पंजाब) में साहित्य का गहराई से मन्थन किया था और युगानुरूप आगमों पर आप अवस्थित थे। पर आपकी प्रतिभा से प्रभावित होकर सविस्तृत भाष्य लिखकर अपनी उत्कृष्ट मेधा का परिचय दिया है। अनुपस्थिति होने पर भी आप एकमत से श्रमण संघ के आचार्य चुने 190866 आपके द्वारा लिखित भाष्य इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि गये। आप दस वर्ष तक श्रमण संघ का कुशल नेतृत्व करते रहे। आपका कितना गम्भीर अध्ययन था। आपने अध्ययन के साथ जो श्रमण संघ के आचार्य पद पर आसीन होकर भी अपने आपको संघ गहन चिन्तन और मनन किया था वह भी उसमें सहज रूप से का सेवक मानते रहे। सत्ता का कभी भी आपके मन में अहंकार नहीं प्रकट हुआ है। वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता स्मृति और पुराण } आया और न कभी भी उसका दुरुपयोग ही किया। आचार्यश्री प्रकृति साहित्य का जो तुलनात्मक अध्ययन आपने विभिन्न ग्रन्थों में प्रस्तुत से कठोर नहीं अपितु मधुर थे। आपने विशाल श्रमण संघ का किया, वह आपके प्रकाण्ड पाण्डित्य को प्रदर्शित करता है। संस्कृत, । संचालन बहुत ही कुशलता के साथ किया। एक बार जो भी व्यक्ति प्राकृत, पालि जैसी प्राचीन भाषाओं पर आपका पूर्ण अधिकार था। आपके परिचय में आ जाता वह सदा-सर्वदा के लिए आपका आपने अपने जीवनकाल में शताधिक ग्रन्थों का लेखन और। अनुयायी बन जाता था। यही कारण है कि संघ की आप पर अपूर्व सम्पादन किया। आगमों के अतिरिक्त धर्म, दर्शन, संस्कृति, नीति निष्ठा थी। आप प्रतिभा, मेधा और शारीरिक सम्पन्नता से युक्त थे। प्रभृति विषयों पर अनेक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया है। आपकी अधिक मधुर व्यक्ति शासन संचालन नहीं कर पाता पर आपने श्रुत-सेवा अपूर्व थी। आप स्थानकवासी समाज के एक युगान्तरकारी कुशल संचालन कर यह सिद्ध कर दिया कि आत्मीयतापूर्ण समर्थ साहित्यकार थे। आपकी साहित्य सम्पत्ति पर समाज को सद्व्यवहार से तन पर ही नहीं, मन पर भी शासन सम्भव है और सात्विक गर्व है। वह शासन ही चिरस्थायी होता है। आचार्य आत्माराम जी महाराज का जीवन सागर से भी आपश्री का सीधा-सादा रहन-सहन था, सीधा-सादा व्यवहार था अधिक गम्भीर था, हिमगिरि से भी अधिक उत्तुंग था और धरती 1 और सीधा-सादा ही जीवन था। जो जादू की तरह जनमानस को से भी अधिक विशाल था। उनके जीवन का मूल्यांकन करना कठिन लुभाता था। ही नहीं, कठिनतर है। आप बाह्य तप के साथ ही अन्तरंग तप पर अधिक बल देते आपका जन्म पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के अन्तर्गत राहों थे। स्वाध्याय आपश्री को अधिक प्रिय था। आपके जीवन के गाँव में हुआ। आपके पिता का नाम मनसाराम जी और मातेश्वरी अनमोल क्षण स्वाध्याय में व्यतीत होते थे। स्वाध्याय करते समय का नाम परमेश्वरी था। वर्ण से आप क्षत्रिय थे। वि. सं. १९३९ के | आप इतने अधिक तल्लीन हो जाते कि संसार में कहाँ पर क्या हो भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को आपका जन्म हुआ। बाल्यकाल में ही रहा है, वह आपको ध्यान ही नहीं रहता। आप फरमाते थे कि माता-पिता का साया आपके सिर से उठ गया था। वकील सोहनलाल स्वाध्याय का आनन्द तो नन्दन-वन में विचरण करने के सदृश है। जी के साथ एक दिन आप पूज्य प्रवर श्री मोतीराम जी महाराज के स्वाध्याय के फलस्वरूप ही आप गम्भीर विषयों पर साधिकार लिख दर्शन हेतु पहुँचे। पूज्यश्री के पावन उपदेश को श्रवण कर मन में सके हैं। जैनागम न्याय संग्रह, जैनागमों में स्याद्वाद, जैनागमों में वैराग्य भावना उबुद्ध हुई और वि. संवत् १९५१ आषाढ़ शुक्ला परमात्मवाद, जीव-कर्म संवाद, जैनागमों में अष्टांगयोग, विभक्ति पञ्चमी को छत बनूड़ गाँव में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपके | संवाद, तत्वार्थसूत्र जैनागम समन्वय, वीरत्थुई विवेचन आदि दीक्षागुरु शालिगराम जी महाराज और विद्यागुरु आचार्य मोतीराम आपकी महत्वपूर्ण और मौलिक कृतियाँ हैं और साथ ही आवश्यक जी महाराज थे। संवत् १९६९ में पूज्य श्री सोहनलाल जी महाराज सूत्र, अनुयोगद्वार, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, ने अमृतसर में आपको उपाध्याय पद प्रदान किया। वि. सं. १९९१ । उपासकदशांग, स्थानांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपातिक दशाश्रुतमें दिल्ली में आपको “जैन धर्म दिवाकर" की उपाधि प्रदान की गई। स्कन्ध, बृहद्कल्प, निरयावलिका, प्रश्नव्याकरण आदि पर जो वि. सं. १९९३ में स्यालकोट में आपको “साहित्य रत्न" की उपाधि आपने सविस्तृत व्याख्याएँ लिखी हैं-वे आपके गम्भीर अध्ययन की in Education intomatical For Private Personal use only . www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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