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________________ ४६० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । स्थानकवासी समुदाय के मुख्य पाँच क्रियोद्धारक हुए हैं-आचार्य १९६४ में अजमेर में हुआ। उस समय श्रमण संघ वरिष्ट श्री जीवराज जी म., आचार्य लवजी ऋषि जी म., आचार्यश्री पदाधिकारी मुनि प्रवरों का शिखर सम्मेलन का भी सफल आयोजन धर्मसिंह जी म., आचार्यश्री धर्मदास जी म. और हरजी ऋषि जी हुआ। इस सम्मेलन में जो श्रमणसंघ के मंत्री थे उनके लिए मंत्री म. और उसके पश्चात् स्थानकवासी समाज २२ सम्प्रदायों में शब्द हटाकर प्रवर्तक पद की घोषणा हुई। सन् १९७२ में राजस्थान विभक्त हो गया और वह विभाग धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते ३३ का प्रान्तीय सम्मेलन आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म. के सम्प्रदायों में पहुँच गया। तब समाज के मूर्धन्य महामनीषियों के नेतृत्व में साण्डेराव में हुआ। सन् १९८७ में पूना में अखिल अन्तर मानस में यह विचार समूत्पन्न हुए कि इस प्रकार ये विभिन्न भारतीय स्थानकवासी श्रमणों का सम्मेलन हुआ। यह सम्मेलन पाँच धाराएँ संघ समुत्कर्ष हेतु हितावह नहीं है। उसी भावना के मई से १२ मई तक चला जिसमें ३०० साधु साध्वियों ने भाग फलस्वरूप श्रावकों का एक संगठन सन् १९०६ में हुआ और वह लिया। श्रमण समाचारी के संबंध में पुनः उस समय चिन्तन किया श्रावक संघठन स्थानकवासी जैन कांफ्रेंस के नाम से विश्रुत हुआ। गया। इस सम्मेलन में लाखों की संख्या में श्रावक श्राविकाएँ स्थानकवासी जैन कांफ्रेंस ने समाज का नेतृत्व करने का बीड़ा उपस्थित थी, महाराष्ट्र के राज्यपाल डॉ. शंकरदयाल जी शर्मा जो अपने हाथ में लिया। वे जानते थे कि जैन संघ का मूल आधार वर्तमान में भारत के राष्ट्रपति हैं, उन्होंने भी भाग लिया और जगत श्रमण समुदाय है। जब तक श्रमण समुदाय में एकता नहीं होगी तब गुरु शंकराचार्य श्री स्वरूपानंद जी और वी. एन. गाडगिल आदि तक स्थानकवासी जैन समाज का विकास नहीं होगा और उन कर्मठ नेताओं ने भाग लिया। इस सम्मेलन में आचार्य सम्राट श्री आनंद कार्यकर्ताओं के प्रबल प्रयास से अजमेर में सन् १९३२ में बृहत ऋषि जी म. ने मुझे उपाचार्य पद प्रदान किया और डॉ. शिव मुनि साधु सम्मेलन हुआ और उस सम्मेलन के पूर्व प्रान्तीय सम्मेलन भी जी म. को युवाचार्य पद प्रदान किया गया। हुए। अजमेर सम्मेलन में अनेक विभिन्न प्रश्नों पर चिन्तन हुआ। संवत्सरी जैसे उलझे हुए प्रश्न का वहाँ समाधान करने का प्रयास श्रमण संघ का यह महान् सद्भाग्य रहा कि उसको प्रथम किया गया। जो एकता का स्वप्न सभी ने संजोया था वह भले ही आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी म. जो आगम के महामनीषी थे, अजमेर में साकार रूप न ले सका हो पर नींव की ईंट के रूप में शांत और गंभीर थे, उनका कुशल नेतृत्व प्राप्त हुआ। द्वितीय जो कार्य हुआ वह बहुत ही प्रशंसनीय रहा। पट्टधर महामहिम आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म. आनंद स्वरूप थे। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व भी बहुत ही अद्भुत और उसके पश्चात् सन् १९५२ में सादड़ी में बृहत साधु सम्मेलन हुआ। यह सम्मेलन अपनी शानी का निराला था। २२ सम्प्रदाय के अनूठा था, ये दोनों महापुरुष समन्वय, स्नेह और सद्भावना के संत और आचार्य वहाँ पर पधारे, उन्होंने अपनी सम्प्रदायों की पावन प्रतीक रहे। जिनके कुशल नेतृत्व में श्रमणसंघ फलता और पदवियों का त्याग कर श्रमण संघ का निर्माण किया। जैन इतिहास फूलता रहा है। जिनकी असीम कृपा का स्मरण कर हृदय श्रद्धा से में दो हजार वर्ष के पश्चात् ऐसी अद्भुत धर्म क्रांति हुई, जिसकी नत हो जाता है। स्वर्गीय आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी म. के मुक्तकंठ से सभी ने प्रशंसा की। इस सम्मेलन में सर्वानुमति से स्वर्गवास के पश्चात् संघ संचालन का दायित्व मेरे कंधों पर आया। श्रमणसंघ प्रथम आचार्यश्री आत्माराम जी म. को अपना आचार्य २८ मार्च १९९२ वि. स. २०४९, चैत्र वदि १० को अहमदनगर नेता चुना। उपाचार्यश्री गणेशीलाल जी म. को बनाया १६ मंत्री 1 में समाधिपूर्वक आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषिजी म. का स्वर्गवास मुनि बनाए और प्रधानमंत्री श्री आनन्द ऋषि जी म. चुने गए। हुआ। उसके पश्चात् संघ संचालन का दायित्व मुझ पर आया। सन् सादड़ी सम्मेलन के पश्चात् सन् १९५३ में सोजत में मंत्री मण्डल । १९९२ बैशाख सुदी ३ अक्षय तृतीया के पावन अवसर पर आचार्य की बैठक हुई। सचित और अचित के प्रश्नों को लेकर गहराई से पद की घोषणा सोजत में श्रमणसंघ के प्रवर्तक श्री रूपमुनि जी म. चिन्तन हुआ। संघीय एकता की दृष्टि से और गुरु गंभीर प्रश्नों पर ने श्रमणसंघ की ओर से की, और कांफ्रेंस के अध्यक्ष पुखराज जी चिन्तन करने हेतु सन् १९५३ का एक संयुक्त चातुर्मास छः बड़े । सा. लूंकड़ ने कांफ्रेंस की ओर से घोषणा की। सन् १९९३, २८ महासंतों का जोधपुर में हुआ और चार महीनों तक संघ समुत्कर्ष । मार्च को उदयपुर में चद्दर समारोह भी आनंद और उल्लास के के अनेक प्रश्नों को लेकर चिन्तन चलता रहा। क्षणों में संपन्न हुआ। सन् १९५६ में भीनासर में बृहत साधु सम्मेलन हुआ और उस श्रमणसंघ एक जयवंत संघ है यह संघ सदा ही एकता का सम्मेलन में उपाध्याय आदि पदों का निर्णय हुआ। ध्वनि विस्तारक } पक्षधर रहा है, जिसको आचार की उत्कृष्टता और विचारों की यंत्र के प्रयोग के संबंध में चिन्तन हुआ और अपवाद में प्रयोग । विराटता में विश्वास है। जो स्व-दर्शन का पक्षधर रहा है और करने पर प्रायश्चित के संबंध में भी निर्णय लिया गया। सन् । प्रदर्शन से सदा दूर रहा है, हमारा परम सौभाग्य है कि हमें ऐसा १९६३ में श्रमणसंघ के प्रधानाचार्य श्री आत्माराम जी म. के महान् संघ प्राप्त हुआ है। हमें पूर्ण आत्म-विश्वास है कि हमारा संघ स्वर्गवास के पश्चात् श्रमणसंघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य सम्राट श्री प्रतिपल प्रतिक्षण विकास करता रहेगा क्योंकि उसका मूल आधार आनंद ऋषि जी म. चुने गए और उनका चद्दर समारोह सन् पवित्र आचार और विचारों पर अवलम्बित है। 1000 Fod Private & Personal Use Only Jain Education Interational OTGww.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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