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________________ ४६२ प्रतीक है। 'तत्त्वार्थ सूत्र- जैनागम समन्वय' तो आपकी अद्भुत कृति है तत्त्वार्थ सूत्र के सूत्रों को ३२ आगमों के पाठों से तुलना कर आपने विद्वद् जगत् में एक अनूठा स्थान बना लिया। यह ग्रन्थ शोधार्थियों के लिए बहुत ही उपयोगी है। आपश्री की दो मौलिक कृतियों का आपश्री के प्रपौत्र शिष्य श्री अमर मुनि जी तथा श्रीचन्दजी सुराना ने नवीन शैली से पुनः सम्पादन किया है। (१) जैन तत्त्व कलिका विकास आचार्यश्री की रचना का 'जैन तत्त्व कलिका' नाम से पुनः प्रकाशन हुआ है, इसमें जैन तत्त्व ज्ञान का प्रामाणिक विवेचन बड़ी ही सरल भाषा तथा रोचक शैली में प्रस्तुत हुआ है। (२) जैनागमों के अष्टांग योग-आचार्य श्री की इस कृति को 'जैन योग: सिद्धान्त और साधना' नाम से उक्त दोनों विद्वानों ने ओहो ! प्रबुद्ध बुद्ध शुद्ध मेरे गुरुवर ज्ञानी आपकी आराधना, सात्विक साधना आलोक बनकर अज्ञान तिमिर को नष्ट करने फैल गई लोक में हर्षित हो आकर्षित हुए भविजन उमड़ पड़ा आपकी ओर शनैः शनै. प्रसन्नता का पारावार ज्ञान की लहरों से आर्द्र होने उतर गये कोटि कोटि जन पुष्कर की पावन गहराई में स्वर स्व के साथ गूंजा पर का दिशाएं जागृत हुई जले फिर दीप हर ओर बस उजाला था ज्ञान का आप भ्रमर बन गूँजे जिन बगिया में सिंह सम दहाड़े हर ओर निर्मल विमल भावना ले साहस का दीप जला दिया तूफाँ में प्रमाद को काटकर श्रम की धार से Jain Education intemational Pas उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ सम्पादन किया है। इसमें जैन योग का ऐतिहासिक, सैद्धान्तिक स्वरूप बताकर साधना पद्धति पर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है। तुलनात्मक दृष्टि से पौर्वात्य और पाश्चात्य योग का भी विवेचन किया गया है। साधकों-शोधकों के लिए ग्रन्थ बहुत उपयोगी है। विक्रम संवत् २०१८ (सन् १९६१) माघ वदी नवमी को तीन माह तक कैंसर की भयंकर व्याधि को सहन कर समाधिकपूर्वक आपका स्वर्गवास हुआ। आपश्री की संयमनिष्ठा, कष्टसहिष्णुता, गम्भीरता, दीर्घदर्शिता, सरलता, नम्रता आदि ऐसे सद्गुण थे जो कभी भुलाये नहीं जा सकते। आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के महान् व्यक्तित्व को शब्दों के संकीर्ण घेरे में निवद्ध करना कठिन ही नहीं, कठिनतर है। वह तो 'महतो महीयान्' है, जो युग-युग तक प्रकाश दान करता रहेगा भूले-भटके जीवन-राहियों को मार्गदर्शन देता रहेगा। •• हे अजातशत्रु आपकी जय हो ! महा श्रमण हो गये कलिकाल में जप तप आपका जन मन को भाया मंगल ही मंगल हुए हर पल जिसने आपका दर्शन पाया हे गुणों के आगार आपकी महिमा थी अपार सुलझे हुए रखे विचार वीर वाणी का किया प्रचार उपाध्याय बन जिन शासन को आपने दिया नया अध्याय इसीलिए उठता था हमारे मन में आपके दर्शन का ज्वार आपने सिखाया था मना पतवार युग को अभी ओर आवश्यकता थी आपकी मंझधार में गिरे किनारा चाहते थे पर आप चले गये दूर बहुत दूर जहाँ से नहीं लौटता है कोई मगर आपका दिव्य तेजस्वी स्वरूप यशस्वी वाणी मनस्वी मन का 05 For Private & Personal Use Only -साध्वी ज्ञानप्रभा जैन स्थानक, (पीपलिया बाजार, ब्यावर) दर्शन जब चाहे नयन बन्द कर कर लेते हैं। आपके उठे हुए कर कमलों से आशीर्वाद आज भी ले लेते हैं। अब तो हर ओर आप ही आप हैं पंच तत्वों में समाकर भी सीखा रहे हैं ज्ञान दर्शन चारित्र का पाठ "ज्ञान प्रभा" अंतर में उतर दिव्य चरणों में कोटि कोटि नमन कर रही है। कर बद्ध भावाञ्जली भेंट कर आपकी पताका लिए सतत विचर रही है। हे अजात शत्रु ! आपकी जय हो ! जय हो !! जय हो !!! आपकी प्रभावना थी जग को अजय हो। विजय हो । Gues www.jalnelibrary.org 23
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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