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________________ । इतिहास की अमर बेल ४५९ श्रमण संघ : एक चिन्तन -आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि भारतीय संस्कृति का जब हम गहराई से अनुशीलन करते हैं। जो संघात को प्राप्त है उसे संघ कहते हैं। सर्वाथसिद्धि में और तो वह दो धाराओं में विभक्त दीखता है, एक धारा ब्राह्मण संस्कृति तत्वार्थ राज वार्तिक में संघ की परिभाषा इस प्रकार है-"सम्यग् है तो दूसरी धारा श्रमण संस्कृति है। ब्राह्मण संस्कृति में संन्यासी दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र से युक्त श्रमणों समुदाय संघ एकाकी साधना के पक्षधर रहे। उन्होंने वैयक्तिक साधना को अधिक की अभिधा से अभिहित है। महत्व दिया। एकान्त शान्त वनों में वे आश्रम में रहते थे। उन भगवती आराधना की विजोदया टीका में संघ को प्रवचन शब्द आश्रमों में अनेक ऋषिगण भी रहते थे पर सभी की वैयक्तिक से सम्बोधित किया है, जिसमें रत्नत्रय का प्रवचन उपदेश किया साधना ही चलती थी। जैन धर्म ने अनेकान्त दृष्टि से इस सम्बन्ध जाता है, श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका के समूह का नाम संघ में चिन्तन प्रस्तुत किया। जो जिनकल्पी श्रमण थे वैयक्तिक साधना है। ये श्रमण संघ के चार अंग हैं। इन्हें ही चतुर्विध संघ की संज्ञा करते थे, उन्हें समाज से कुछ भी लेना देना नहीं था। वे उग्र तपस्वी प्रदान की गई। जो तप में श्रम करते हैं, वे श्रमण हैं। ऐसे श्रमणों थे, मौन रहकर प्रायः जंगलों में वृक्षों के नीचे खड़े होकर साधना के समुदाय को श्रमण संघ के रूप में जन मानस जानता है| करते थे। अधिक से अधिक जिन कल्पी एक स्थान पर एकत्रित हो पहचानता है। इस प्रकार का श्रमण संघ गुणों का प्राधान्य है, जाते तो सात से अधिक नहीं होते, पर सातों ही विभिन्न दिशाओं समस्त प्राणियों के लिए सुख प्रदान करने वाला है। निकट भव्य में मुख रखते थे। परस्पर वार्तालाप भी नहीं करते थे। उनकी जीवों के लिए आधार रूप है और माता-पिता के समान क्षमा प्रदान साधना का समाज के साथ कोई सम्बन्ध नहीं था। करने वाला है। स्थविरकल्पी श्रमणों के लिए संघीय साधना को अत्यधिक यह सत्य है कि संघ शब्द अपने आप में एकता, सुव्यवस्था, महत्व दिया गया। जो साधक संघ बहिष्कृत रहा उसे जैन धर्म में न सुसंगठन और शक्ति का प्रतीक है। एकाकी जीवन में अंकुश नहीं आदर प्राप्त हुआ और न प्रतिष्ठा ही प्राप्त हुई। देववाचक एक रहता इसलिए उसमें स्वच्छन्दता व अनाचार की प्रवृत्ति बढ़ जाती महामनीषी आचार्य थे, उन्होंने नन्दीसूत्र जैसी महनीय कृति की है, जो साधक अपने जीवन को आचार के आलोक से चमकाना रचना की, प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान महावीर के पश्चात् उन्होंने चाहते हैं विचारों के विमल प्रकाश में अपना जीवन व्यतीत करना विस्तार के साथ संघ की स्तुति की है। संघ को नगर, चक्र, रथ, चाहते हैं उन साधकों की साधना संघ में रहकर ही निर्विघ्न रूप से पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, महामंदर प्रभृति विभिन्न उपमाओं से सम्पन्न हो सकती है, यही कारण है कि श्रमणों के लिए एकाकी महत्वपूर्ण है। उसमें यह भी कहा गया है, जैसे परकोटे से सुरक्षित रहने का निषेध किया गया है। आचार्य संघदासगणि ने बृहत्कल्प में नगर निवासियों को सुरक्षा प्रदान करता है, वैसे ही संघ रूपी नगर संघ स्थित श्रमण को ही ज्ञान का अधिकारी बताया है, वही श्रमण अपने साधकों को चारित्रिक स्खलनाओं से सुरक्षित रखता है। जैसे दर्शन और चारित्र में विशेष रूप से अवस्थित हो सकता है, श्रमण चक्र शत्रु का छेदन करता है वैसे ही संघचक्र साधना में जो दुर्गुण जीवन का सार उपशम है यदि श्रमण जीवन में कषायों की बाधक हैं, उन दुर्गुणों का उच्छेदन करता है और साधक के जीवन प्राधान्यता रही तो साधक के व्रत और नियम नहीं रह पायेंगे में सद्गुणों का सौन्दर्य लहलहाने लगता है। संघ रूपी रथ है, इस । एतदर्थ ही उन महान् आचार्यों ने साधकों को यह पवित्र प्रेरणा पर शील रूप पताकाएँ फहरा रही हैं जिसमें संयम और तप के प्रदान की कि संघ में रहकर ज्ञान, ध्यान और साधना के द्वारा अश्व लगे हुए हैं, स्वाध्याय का मधुर आघोष जन जीवन को आत्म-कल्याण के महापथ पर अग्रसर होना चाहिए। आहल्लादित कर रहा है ऐसा संघ रूपी रथ कल्याणप्रद है। पद्म श्रमण भगवान् महावीर के पश्चात् दुष्काल की काली छाया कमल सदा अलिप्त रहता है, जल में रहने पर भी जल से निर्लिप्त एकबार, नहीं किन्तु तीन बार मंडराई। बारह-बारह वर्ष के तीन रहता है, वैसे ही संघ रूपी पद्म विषय वासना से अलिप्त रहता बार दुष्काल पड़े जिसने संघ को विभिन्न भागों में विभक्त कर दिया। है। यह संघरथ साधकों को दुर्गुणों की धूप से बचाता है संध चक्र जो संघ आचार की दृष्टि से उत्कृष्ट था परिस्थिति के कारण उसमें के समान सौम्य है शांति प्रदाता है तो सूर्य के समान पाप ताप को धीरे-धीरे शिथिलाचार ने प्रवेश किया। चैत्यवास उस शिथिलाचार नष्ट करने वाला भी है इस तरह विस्तार से संघ की महिमा और का ही रूप था। आचार्य हरिभद्र ने “सम्बोध प्रकरण ग्रंथ" में गरिमाका उत्कीर्तन हुआ है। विस्तार से उसका उल्लेख किया है। समय-समय पर आचार भगवती आराधना में आचार्य ने संघ की परिभाषा करते हुए शैथिल्य को नष्ट करने के लिए क्रियोद्धार हुए हैं, उन क्रियोद्धार से लिखा है-जो गुणों का समूह है वह संघ है। कर्मों के विमोचक को ही स्थानकवासी संघ का जन्म हुआ, जिसने विशुद्ध आचार और संघ कहा गया है। सम्यग दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यग चारित्र में विचार को महत्व दिया। Jan Education International 09For Private PersonsrusBonfeo.000000 000 0000000000 HD www.dainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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