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________________ 534 इतिहास की अमर बेल संदर्भ स्थल : १. नृप अनंगपाल बावीसमाँ बत्तीस लक्षण तास । संवत् जहाँ नो सई निडोत्तर (९०९) वर्ष मीत सुप्रकास ॥ गुरुवार दसमी दिवस उत्तम तह असाढ़े मास दिल्ली नगर करि गढी किल्ली कहे कवि किसनदास ॥ सो गढ़के जब छखेडी उतपत्ति गड तह वेर । सो वह हुई किल्ली वहाँ गाडी भई ढिल्ली फेर ॥ २. संवत् सात सौ तीन दिल्ली तुअर बसाई अनंगपाल तुअर । -पट्टावली समुच्चय, भाग १ पृष्ठ २०९ 3. Cunnigham: The Archacological Survey of India, p. 140 ४. दिल्ली अथवा इन्द्रप्रस्थ, पृ. ६। ५. राजपूताने का इतिहास, प्रथम जिल्द, पृ. २३४। ६. इतिहास प्रवेश, भाग १. पृ. २२०. ७. टॉड - राजस्थान का इतिहास, पृ. २३०। ८. “देशोऽस्ति हरियनाख्यो पृथिव्यां स्वर्गसंनिभः। दिल्लीकाख्या पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता ।" ९. नं. १ देखिए । १०. जैन तीर्थ सर्व संग्रह, ले. अंबालाल, पृ. ३५२/ ११. ले. वर्धमान सूरि । १२. उपदेशसार की टीका। १३. ले. जिनपाल उपाध्याय । १४. ले. जिनप्रभ सूरि, सं. जिनविजय प्रकाशक सिंघी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई। १५. ले. विनयप्रभ उपाध्यायः प्रका. 'जैन सत्य प्रकाश' अन्तर्गत अहमदाबाद। १६. बहादुरशाह (९१७०७-१२) - औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बहादुरशाह गद्दी पर बैठा। बूढ़ा बहादुरशाह उदार हृदय और क्षमाशील मनुष्य था। इसलिए कभी-कभी इतिहासकार उसे शाह-ए-बेखबर कहा करते हैं। -भारतवर्ष का इतिहास १७. जिन व्यक्तियों से मारवाड़ का इतिहास गौरवान्वित हुआ है उन व्यक्तियों में भण्डारी खींवसी जी का स्थान मूर्धन्य है। वे सफल राजनीतिज्ञ थे। तत्कालीन मुगल सम्राट पर भी उनका अच्छा-खासा प्रभाव था। उस समय राजनीति संक्रान्ति के काल में गुजर रही थी। सम्राट औरंगजेब का निधन हो चुका था और उसके वंशजों के निर्बल हाथ शासन नीति को संचालन करने में असमर्थ सिद्ध हो रहे थे। चारों ओर राजनीति के क्षेत्र में विषम स्थिति थी। उस समय जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह जी के प्रधानमन्त्री खींवसी भण्डारी थे। जब भी जोधपुर राज्य के सम्बन्ध में कोई भी प्रश्न उपस्थित होता तब वे बादशाह की सेवा में उपस्थित होकर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से गम्भीर समस्याओं का समाधान कर देते थे। शाहजादा मुहम्मद शाह को राज्यासीन कराने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी ऐसा पारसी तवारीखों से भी स्पष्ट होता है। भण्डारी खींवसाजी सत्यप्रिय, निर्भीक वक्ता और स्वामी जी के परम भक्त थे। धर्म के प्रति भी उनकी स्वाभाविक अभिरुचि थी। वे वि. सं. १७६६ में जोधपुर के दीवान बने और सं. १७७२ में वे सर्वोच्च प्रधान बने। फिर महाराजा अजीतसिंह के साथ भतभेद होने से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। महाराजा अजीतसिंह के पुत्र महाराज अभयसिंह के राज्यगद्दी पर बैठने पर वे पुनः सं. १७८१ में सर्वोच्च प्रधान बने और सं. १७८२ में मेड़ता में उनका देहान्त हुआ। १८. पंचहिं ठाणेहिं इत्थी पुरिसेण सद्धि असंवसमाणीवि गब्धं धरेज्जा । तं जहा 9. इत्थी दुब्बियडा दुण्णिसण्णा सुक्कपोग्गले अधिद्विज्जा । २. सुक्कपोग्गलसंसिट्टे से वत्थे अन्तोजोणीए अणुपवेसेज्जा । ३. सईया से गले अणुपवेसेज्जा 2076 Jain Education International 90 ४. परो या सेले अणुपयेसेजा। ५. सीओदगवियडेणं वा से आयममाणीए सुक्कपोग्ला अणुपवेसेज्जा - इच्चेतेहिं पंचहिं ठाणेहिं इत्थी पुरिसेणं सद्धिं असंवसमाणीचि गमं धरेज्जा । -स्थानाङ्ग, स्थान ५, सूत्र ४१६ ४३५ १९. यदा नार्य्यावुपेयातां, वृषस्वन्त्यी कथञ्चन । मुञ्चन्नयी शुकमन्योन्यमनास्थिस्तत्र जायते ॥3 ॥ ऋतुस्नाता तु या नारी, स्वप्ने मैथुनमावहते। आर्त्तवं वायुरादाय, कुक्षी गर्भं करोति हि ॥ २ ॥ मासि मासि विवर्धेत, गर्भिण्या गर्भलक्षणम् । कललं जायते तस्याः वर्जितं पैतृकैः गुणैः ॥ ३ ॥ सुश्रुत संहिता २०. चत्तारि मणुस्सी गढ़मा पं. तं. इत्थित्ताए, पुरिसत्ताए, णपुंसगत्ताए विवत्ताए । अघसुक्कं बहुओयं, इत्थी तत्थप्पजाय । अप्पओयं बहुसुक्कं पुरसो तत्थ जाय ॥ दोपि रक्तसुक्काणं तुल्लभावे नपुंसओ । इत्थी ओतसएमोओगे, बिम्बं तत्थप्पजायई । ३१. उत्तराध्ययन २६ / २३ । ३२. ३३. - 'स्थानांग'-पृ. ५१२-५१३, आचार्य अमोलक ऋषि 29. Glimpses of World Religion-Charles Dickens, Jaico Publishing House, Bombay, pp. 201, 202-203 २२. "बिस्मिल्लाह रहमानुर्रहीम" - कुरान 9-91 23. Towards Understanding Islam-Sayyid Abulatt'la Mamdudi, pp. 186-187 २४. “फला तज अलू बुतून मका वरक्त हय बतात।" २५. व मन अहया हा फकअन्नमा अह्यन्नास जमीअनः। कुरान श. ५/३५ २६. दशवैकालिक ६/२० २७. अत्थि एरिसो पडिबंधो। सव्व जीवाणं सव्वलोए। प्रश्नव्याकरण १/५ २८. इच्छा हु आगास समा अणंतिया । -उत्तराध्ययन ९/४८ कामे कमाही कमियं खु दुक्ख । -दशवैकालिक २/५ २९. ३०. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था। - प्रश्नव्याकरण १/५ निशीथभाष्य गाथा १३९०, भाग २, पृष्ठ ६८१। गोयमा ! जाहे णं सक्के देविंदे देवराया सुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं भासं भासति ताहे णं सक्के देविंदे देवराया सावज्जं भासं भासइ। जाहे णं सक्के देविंदे देवराया सुहुमकायं णिज्जूहित्ताणं भासं भासइ ताहे णं सक्के देविंदे देवराया असावज्जं भासं भासइ । For Private & Personal Use Only. -श्री व्याख्या-प्रज्ञप्ती षोडश शतकस्य द्वितीयोद्देशे। ३४. कन्नेट्टियाए व मुहणंतगेण वा विणा । -महानिशीध सूत्र अ ७ दरियं पडिक्कमे मिच्छुक्कडं पुरिमड्ढं ॥ ३५. तथा संपातिमा सत्त्वाः सूक्ष्मा च व्यजननोऽपरे । तेषां रक्षानिमित्तं च विज्ञेयो मुखवस्त्रिका ॥ - योगशास्त्र हिन्दी भा. पृ. २६० ३६. ज्ञातासूत्र अध्ययन १४वाँ । ३७. निरयावलिका । ३८. भगवती सूत्र, शतक ८, उद्देशक ३३ । ३९. हस्ते पात्रं दधानाश्च, तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः । मलिनान्येव वासांसि धारयन्त्यल्पभाषिणः ॥ ४०. श्रीमाल पुराण अध्याय ७-३३। ४१. 'साम्भोगिक' यह जैन परम्परा का एक पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ -शि. पु. ज्ञान संहिता है आहार आदि तथा अन्य वस्तुएँ एक सन्त का दूसरे सन्त को आदानप्रदान करना। यह संभोग कहलाता है। जैन परम्परा में एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान की जाने वाली वस्तुएँ बारह प्रकार की मानी गयी हैं और उनका परस्पर आदान-प्रदान ही साम्भोगिक सम्बन्ध कहा जाता है। www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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