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________________ - १४३४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । शक्तिशाली नेतृत्व में धर्म संघ का अभ्युदय के शिखर को स्पर्श कर अजमेर की पवित्र धरती भीग उठी। बोलने को बहुत कुछ था, रहा था, प्रगति के नये उन्मेष नयी सम्भावनाओं को खोज रहे थे। किन्तु बोलने की शक्ति कुण्ठित हो चुकी थी। सब देख रहे थे, सुन आचार्यश्री ने अपने शिष्यों को संस्कृत, प्राकृत और आगम । रहे थे किन्तु यह सब कुछ कैसे हो गया यह समझ में नहीं आ रहा साहित्य का उच्चतम अध्ययन करवाया था। स्वयं आचार्यश्री के हाथ था। आचार्यश्री की अर्थी के साथ लड़खड़ाते हुए कदमों से लोग के लिखे हुए अनेकों ग्रन्थ जोधपुर, जालोर, अजमेर और खाण्डप चल रहे थे। उनके अवरुद्ध कण्ठों से एक ही स्वर निकल रहा थातथा अन्य भण्डारों में मैंने देखे हैं। उनका लेखन शुद्ध है; लिपि जीवन के उपवन में आये, आकर फिर क्यों लौट चले। इतनी बढ़िया और कलात्मक तो नहीं किन्तु सुन्दर है जो उनके गहन मधुर प्रेम की बीन बजाकर, अब अपना मुँह मोड़ चले। अध्ययन और प्रचार की स्पष्ट झांकी प्रस्तुत करती है। अत्यन्त परिताप है कि व्यवस्थापकों की अज्ञता के कारण उनके हाथ के किन्तु सुनने वाला तो बहुत दूर चला गया था, जहाँ हजारों लिखे हुए अनेकों ग्रन्थ दीमकों के उदरस्थ हो गये, उन दीमकों की । कण्ठों का आर्तनाद भी पहुँच नहीं सकता। शिव जा चुका था, शव ढेर में से कुछ प्रतियाँ मुझे उपलब्ध हुई हैं, जो मेरे संग्रह में हैं। में देखने और सुनने की कहाँ शक्ति थी? इस वर्षावास में आचार्यप्रवर ने विशेष जागरूकता के साथ । आचार्यश्री के अन्तिम पार्थिव शरीर को देखने के लिए सभी विशेष साधनाएँ प्रारम्भ की। उन्हें पूर्व ही यह परिज्ञान हो गया था । व्याकुल थे, देखते ही देखते चन्दन की लकड़ियों की आग ने उनके कि मृत्यु ने अपने डोरे डालने प्रारम्भ कर दिये हैं और अब यह पार्थिव शरीर को जलाकर नष्ट कर दिया। शरीर लम्बे समय तक नहीं रहेगा। अतः उन्होंने आलोचना उस विमल विभूति के वियोग ने समाज को अनाथ बना दिया। सल्लेखना कर पाँच दिन का संथारा किया और ९३ वर्ष की आयु श्रद्धालुगण यह मानने के लिये प्रस्तुत नहीं थे कि ये हमारे बीच में पूर्ण कर संवत् १८१२ में आश्विन शुक्ला पूर्णिमा के दिन इस नहीं हैं। उनका भौतिक शरीर भले ही नष्ट हो गया था किन्तु यश संसार से अन्तिम विदा ली। शरीर से वे जीवित थे और आज भी जीवित हैं। श्रद्वालुगण की आँखों में मोती चमक रहे थे, सर्वत्र एक अजीब आचार्यप्रवर का जीवन प्रारम्भ से ही चमकते हुए नगीने की शान्ति थी। चारों ओर सभी गमगीन थे, सभी का हृदय वेदना से तरह था और अन्त तक वे उसी प्रकार चमकते रहे। वे भीगा हुआ था। दूसरे दिन अन्तिम विदा की यात्रा प्रारम्भ हुई।। स्थानकवासी समाज के एक ज्योतिर्मय स्तम्भ थे। उनका जीवन विशाल जनसमूह, जिधर देखो उधर मानव ही मानव; सभी । पवित्र था, विचार उदात्त थे और आचार निर्मल था। उन्होंने जैन चिन्ताशील: हजारों आँखों से झरते हुए मोतियों की बरसात से शासन की महान् प्रभावना की थी। आचार्य अमरसिंहजी महाराज का संसार पक्षीय तातेड़ वंश (दिल्ली) का संक्षिप्त परिचय : वि. सं. १७00 के लगभग श्री देवीसहायजी तातेड़ नागौर (राजस्थान) से दिल्ली आये और यहाँ पर अपना व्यवसाय प्रारम्भ किया। वि. सं. १७१९ आसाढ सुदि १४ (रविवार) को माता कमला देवीजी की कुक्षि से एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ। नाम रखा गया अमरसिंह। श्री देवीसहाय जी का वंश परिचय श्री देवीसहाय जी १. अमरसिंहजी २. टोडरमलजी ३. कस्तूर चन्दजी भीखामलजी हीरालालजी मिलापचन्दजी १. मेघराजजी २. कल्लूमलजी ३. प्यारेलालजी ४. गुलाबचन्दजी १ ० १. मानकचन्दजी ७. जगन्नाथजी २.छुट्टनलालजी ३. गोपालचन्दजी ४.प्रेमचन्दजी ५. किशनचन्दजी ६. मोहनलालजी (विशाल एवं सम्पन्न तातेड़ परिवार दिल्ली में समाज की बहुविध सेवाओं में सक्रिय भाग लेता रहा है) esain Education foternationalOO www.alfel brary org G HADORS-00000D-Compan
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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