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________________ १४३६ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । हमारे ज्योतिर्धर आचार्य : आचार्य श्री तुलसीदासजी महाराज Fr इस विराट विश्व में हजारों प्राणी प्रतिदिन जन्म लेते हैं और दोनों स्थितियों में सम रहता है। चाहे बसूले की मार हो या चन्दन प्रतिदिन मरते हैं, किन्तु उन्हें कोई भी याद नहीं करता। जिनका । का उपहार हो, मधुर मिष्ठान्न की मनुहार हो या घृणा-तिरस्कार ही जीवन आत्महित के साथ जगहित के लिये समर्पित होता है, दुत्कार हो उसके अन्तर्मानस पर कोई असर नहीं होता। वह आत्मविकास के साथ जन-जीवन के लिए क्रियाशील होता है, वह द्वन्द्वातीत और विकल्पातीत होकर साधना के महा-पथ पर बढ़ता जीवन विश्व में सार्थक जीवन गिना जाता है। जिन्दगी का अर्थ है। रहता है। विश्व की अन्धकाराच्छन्न काल-रात्रि में सुख, सद्भाव और स्नेह महामहिम आचार्यप्रवर श्री तुलसीदासजी महाराज इसी प्रकार का आलोक फैलाना। सन्त अपने लिए ही नहीं, विश्व के लिए के सन्तरत्न थे। आपश्री का जन्म मेवाड़ के जूनिया ग्राम में हुआ जीता है। भगवान पार्श्वनाथ के चरित्रकार ने भगवान पार्श्व की था। आपके पूज्य पिताश्री का नाम फकीरचन्दजी था और माता का परमं कारुणिक भावना का चित्रण करते हुए लिखा है-ये साधुजन नाम फूलाबाई था। आपके पूज्य पिताश्री अग्रवाल समाज के प्रमुख स्वभाव से ही परहित करने में सदा तत्पर रहते हैं। चन्दन की तरह नेता थे। आपका जन्म सं. १७४३ आश्विन शुक्ला अष्टमी सोमवार अपना शरीर छिलाकर सुगन्ध फैलाते हैं, अगरबत्ती की तरह को हुआ था। 'होनहार विरवान के होत चीकने पात' उक्ति के जलकर वातावरण को मधुर सौरभ से भहकाते हैं, मोमबत्ती की अनुसार आपके जीवन में अनेक विशेषताएँ थीं। आपकी बुद्धि तरह अपनी देह को नष्ट कर अन्धकार से अन्तिम क्षण तक संघर्ष बहुत ही तीक्ष्ण थी। किन्तु पूर्वभवों के संस्कारों के कारण आपके करते रहते हैं, अपने परिश्रम की बूंदों से मिट्टी को सींचकर मन में संसार के भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण नहीं था। आपके कल्पवृक्ष उत्पन्न करते हैं। वे जीते-जागते कल्पवृक्ष हैं। जिनदासगणी महत्तर ने श्रमण जीवन की महिमा उत्कीर्तन करते हुए लिखा है अन्तर्मानस की विरक्त वृत्ति को निहारकर माता और पिता के मन में यह विचार उत्पन्न हुए कि कहीं यह साधु न बन जाय। अतः सन्तजन विविध जाति और कुलों में उत्पन्न हुए, पृथ्वी के चलते पानी आने के पूर्व ही पाल बाँधनी चाहिए। इसलिए पन्द्रह वर्ष की फिरते कल्पवृक्ष हैं। वह कल्पवृक्ष भौतिक कामनाएँ पूर्ण करता है तो किशोरावस्था में ही इनका पाणिग्रहण एक रूपवती कन्या के साथ यह कल्पवृक्ष आध्यात्मिक वैभव की वृद्धि करता है। श्रीमद्भागवत कर दिया गया। में कर्मयोगी श्रीकृष्ण कहते हैं-सन्तजन ही सबसे बड़े देवता हैं। वे ही समस्त जगत् के बन्धु हैं, वे जगत् के आत्मा हैं, और सत्य- किन्तु जिनका उपादान शुद्ध होता है, उन्हें निमित्त मिल ही तथ्य तो यही है मेरे में (भगवान में) और सन्त में कोई अन्तर जाता है और अनुकूल निमित्त मिलते ही वह दबी हुई ज्योति नहीं है। गुरु अर्जुनदेव ने लिखा है-सन्त धर्म की जीती-जागती । प्रज्वलित हो जाती है। तुलसीदासजी का पाणिग्रहण होने पर भी मूर्ति हैं, तप और तेज के प्रज्वलित पिण्ड हैं और करुणा के उनका मन संसार के भौतिक पदार्थों में नहीं लगा था। आचार्य अन्तःस्रोत हैं। सम्राट् अमरसिंहजी महाराज विचरण करते हुए जूनिया ग्राम में पधारे। आचार्यप्रवर के प्रवचन को श्रवणकर उनके अन्तर्मानस में सन्त-जीवन के परमानन्द का मूल स्रोत है समता। जब तक मन वैराग्य भावना उबुद्ध हुई। विक्रम संवत् १७६३ की पौष वदी में राग-द्वेष के विकल्प और संकल्प उबुद्ध होते रहते हैं, कषाय ग्यारस को बीस वर्ष की भरी जवानी में उन्होंने संयम साधना के की लहरें तरंगित होती रहती हैं, मन अशान्ति की आग में झुलसता रहता है। सन्त समता के शीतल जल से कषायों की आग को शान्त कठोर कंटकाकीर्ण महामार्ग को अपनाया। माता-पिता, पत्नी और परिजनों के अति आग्रह करने पर भी वे विचलित नहीं हुए और करता है। वह क्रोध नहीं करता, किन्तु सदा प्रसन्न रहता है। वह चन्द्र के समान सौम्य और विराट सागर के समान गहन-गम्भीर संयम ग्रहण कर एक आदर्श उपस्थित किया। होता है। यदि उस पर विरोधी असज्जन तेज कुल्हाड़ी का प्रहार संयम ग्रहण करने के पश्चात् आपश्री ने आचार्यश्री के नेतृत्व करता है या भक्त सज्जन शीतल चन्दन का लेप करता है तो वह । में आगम व दर्शन साहित्य का गहरा अध्ययन किया। अन्त में १. "जात्यैवेते परहितविधी साधवो बद्धकक्षाः"। ५. महप्पसाया इसिणो हवंति -उत्तराध्ययन ११ 39२. “विविह कुलुप्पण्णा साहवो कप्परुक्खा"। -नन्दी चूर्णि २/१६ ६. चन्दो इव सोमलेसा ३. "देवता बान्धवा सन्तः सन्त आत्माऽहमेव च" ७. सागरो इव गम्भीरा। -औपपातिक सूत्र-समवसरण अधिकार __-श्रीमद्भागवत् ११/२६/३४८. वासी चंदणकप्पो य असणे अणसणे तहा -उत्तराध्ययन १९/९२ ४. साधु की महिमा वेद न जाने, जेता सुने तेता बखाने। साधु की शोभा का नहिं अन्त, साधु की शोभा सदा बे-अन्त॥ 3000000000 sp3D909200OODOO Jain Education intemationalit Jain Education internationalisa.o o.00 0 000SCForPrivate Personal use only D O . 5 0 0Rswinw.jainelibrary.org.
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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