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________________ Ge । इतिहास की अमर बेल ४३३ दिया। जो भी व्यापार किया उसमें मुझे अत्यधिक लाभ ही लाभ | महापुरुष के कार्य को सुगम बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए। हुआ। नवीन मकान बनाने के लिए ज्यों ही नींव खोदी गयी उसमें | अतः वे साचौर से विहार कर पूज्यश्री की सेवा में पधारे। उस समय पच्चीस लाख से भी अधिक की सम्पत्ति मिल गई। मैं चिन्तन करने । आचार्यश्री नागौर विराज रहे थे। दोनों ही महापुरुषों का मधुर संगम लगा कि कहीं मेरा नियम भंग न हो जाये, अतः उदार भावना के । हुआ। आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज, आचार्य धन्नाजी महाराज से साथ मैंने दान देना प्रारम्भ किया। किन्तु दिन-दूनी रात चौगुनी । दीक्षा और ज्ञान में भी बड़े थे। अतः विनय के साथ उन्होंने लक्ष्मी बढ़ती ही गयी। तब मुझे अनुभव हुआ कि दान देने से आचार्यश्री से अनेकों जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की और योग्य समाधान प्राप्त लक्ष्मी घटती नहीं किन्तु बढ़ती है। एक शायर ने इस तथ्य को इस कर उन्हें संतोष हुआ। दोनों ही महापुरुषों में दिन-प्रतिदिन प्रेम बढ़ता रूप में कहा है ही रहा। आचार्य अमरसिंह जी महाराज ने वहाँ से विहार कर मेड़ता, नागोर, बगड़ी (सज्जनपुर), अजमेर, किसनगढ़, जूनिया, जकाते माल बदर कुनके, फजल-ए-रजरा। केकड़ी, शहापुरा, भीलवाड़ा, कोटा, उदयपुर, रतलाम, इन्दौर, चो बाग बां बबुर्द, वेशतर दिहद अंगूर। पीपाड़, बिलाड़ा प्रभृति क्षेत्रों में धर्म प्रचार करते हुए वर्षावास किये। अर्थात्-दान देने से उसी तरह लक्ष्मी बढ़ती है जैसे अंगूर की जहाँ भी वर्षावास हुआ वहाँ पर धर्म की प्रबल प्रभावना हुई। शाखा काटने से वे और अधिक मात्रा में आते हैं। आचार्यप्रवर के प्रतिदिन बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर कानजी ___गुरुदेव! एक बहुत ही आश्चर्य की घटना हुई। अपराह्न का Jऋषि के सम्प्रदाय के आचार्यश्री ताराचन्द जी महाराज, श्री समय था, एक अवधूत योगी हाथ में तुम्बी लेकर आया और जयपुर जोगराजजी महाराज, श्री मीवाजी महाराज, श्री तिलोकचन्दजी की सड़कों पर और गलियों में यह आवाज लगाने लगा-“हे कोई महाराज एवं आचार्यश्री राधाजी महाराज, आचार्यश्री हरिदासजी माई.का माल! जो मेरी इस तुम्बी को अशर्फियों से भर दे।" जब । महाराज के अनुयायी श्री मलूकचन्दजी महाराज, आर्याजी फूलाजी मेरे कर्ण-कुहरो में यह आवाज आयी तब मैंने योगी को अपने पास महाराज, आचार्यश्री परसरामजी महाराज के आज्ञानुवर्ती महाराज बुलाया और स्वर्णमुद्राओं से तुम्बी को भरने लगा। हजारों स्वर्णमुद्राएँ खेतसिंहजी महाराज, खींवसिंहजी महाराज तथा आर्याश्री केशरजी डालने पर भी तुम्बी नहीं भरी। मैं मुद्राएँ लेने के लिए अन्दर जाने के महाराज आदि सन्त सती वृन्द पचवर ग्राम में एकत्रित हुए और लिए प्रस्ततु हुआ। योगी ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा-हम साधुओं परस्पर उल्लास के क्षणों में मिले और एक-दूसरे से साम्भोगिक४१ को स्वर्णमुद्राओं से क्या लेना-देना? साधु तो कंचन और कामिनी का सम्बन्ध प्रारम्भ किया तथा श्रमण संघ की उन्नति के लिए अनेक त्यागी होता है। उसने पुनः तुम्बी खाली कर दी और कहा-मैं तुम्हारी महत्वपूर्ण प्रस्ताव भी पारित किये गये। इस समय आचार्यश्री परीक्षा लेने के लिए स्वर्ग से आया हूँ। मैंने सोचा, तुम नियम पर अमरसिंहजी मराहाज के लघु गुरुभ्राता दीपचन्दजी महाराज एवं कितने दृढ़ हो। तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, यह कहकर वह अन्तर्धान । प्रवर्तिनी महासती भागाजी भी उपस्थित थीं। स्थानकवासी परम्परा हो गया। गुरुवर्य! वे सारी स्वर्णमुद्राएँ मैंने गरीबों को, जिन्हें । की दृष्टि से यह सर्वप्रथम सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में अनेक आवश्यकता थी, उनमें वितरण कर दीं। वस्तुतः गुरुदेव, आपका महत्वपूर्ण प्रस्ताव भी पारित हुए। श्रद्धेय सद्गुरुवर्य श्री पुष्कर ज्ञान अपूर्व है। आपश्री नियम दिलाते समय यदि मुझे सावधान न मुनिजी के पास उस समय का लिखित एक पन्ना है, उससे उस करते सो सम्भव है मैं नियम का पूर्ण रूप से पालन नहीं कर पाता। | समय की स्थिति का स्पष्ट परिज्ञान होता है। दीर्घकाल से आपश्री के दर्शनों की उत्कट अभिलाषा थी, वह आज पचवर से विहार कर आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज ने पूर्ण हुई। कुछ दिनों तक श्रेष्ठिवर्य रंगलालजी आचार्यश्री की सेवा में किसनगढ़ में चातुर्मास किया। वर्षावास के पश्चात् वहाँ पर रहे औ पुनः लौटकर वे जयपुर पहुँच गये। परमादरणीय आचार्यश्री भूधरजी महाराज के शिष्य उग्र तपस्वी धर्म प्रभावना श्रद्धेय आचार्य रघुनाथमलजी महाराज, श्रद्धेय आचार्यश्री जयमलजी महाराज, आदि सन्तों ने तथा आर्या वखताजी ने आचार्यश्री के इस वर्षावास में धर्म की अत्यधिक प्रभावना हुई। वर्षावास पूर्ण साथ स्नेह सम्बन्ध स्थापित किया और एक बनकर धर्म की होने पर आचार्यप्रवर ने मारवाड़ के विविध ग्रामों में धर्म का प्रचार प्रभावना प्रारम्भ की। आचार्यप्रवर ने सं. १८११ में पुनः जोधपुर किया और पाली चातुर्मास किया। उसके पश्चात् सोजत और जालोर चातुर्मास किया। आचार्यप्रवर के उपदेशों से धर्म का कल्पवृक्ष चातुर्मास किये। आचार्यप्रवर ने अथक परिश्रम से मारवाड़ के क्षेत्रों लहलहाने लगा। जोधपुर का चातुर्मास सम्पन्न कर आयार्यश्री सोजत, में धर्मप्रचार किया था। उस समय पूज्यश्री धर्मदास जी महाराज के बगड़ी, शहापुरा होते हुए अजमेर वर्षावास हेतु पधारे। क्योंकि शिष्य पूज्यश्री धन्नाजी महाराज जो साचौर में धर्मप्रचार कर रहे थे अजमेर संघ आचार्यश्री की वर्षों से भावभीनी प्रार्थना कर रहा था। उन्होंने सुना कि आचार्यप्रवर अमरसिंहजी महाराज ने मारवाड़ क्षेत्र । को सुगम बना दिया है और उन्होंने स्थानकवासी धर्म का खूब प्रचार आचार्यश्री का स्वास्थ्य वृद्धावस्था के कारण कुछ शिथिल हो किया है, तब उन्होंने विचार किया है कि मुझे भी चलकर उस । रहा था। किन्तु शरीर में किसी प्रकार की व्याधि न थी। उनके Jam Education titaivational OS Ear Private & Personal Use ay gug Co-www.jairnelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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