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________________ 0 80%2009/NDAcom. 299390290000000000000 ३९१ - 70RO । वाग् देवता का दिव्य रूप धर्म के महत्व पर, जीवन को धर्म के माध्यम से उन्नत बनाकर हुआ जा सकता है; किन्तु दुःख इस बात का है कि आज विश्व में 24 मानव जीवन की सफलता की बात की गई है। अगले प्रवचन "धर्म बहुसंख्यक लोग विवेक से काम नहीं लेते। की आवश्यकता" में विषय वस्तु का उचित प्रकार से प्रतिपादन ___संयम का अर्थ है-"आत्म निग्रह करना, मन, वचन और करके अंत में स्पष्ट किया है कि धर्मों की सफलता और शरीर का नियमन करना, इंद्रियों को अधिकार में रखना।" एक कल्याणकारिता भी तभी सिद्ध हो सकती है, जब आप धर्मों के नाम पाश्चात्य दार्शनिक ने कहा है-"सबसे शक्तिशाली व्यक्ति वह है जो |से लड़ाई झगड़े न करके अपने-अपने धर्म का अहिंसा, सत्य आदि अपने आपको अपने अनुशासन में रख सकता है।" इसका दूसरा का यथोचित पालन करेंगे। तभी धर्म विश्व में स्वर्ग का सौन्दर्य पक्ष यह हुआ कि जो व्यक्ति अपने आपको अनुशासन में नहीं रख उपस्थित कर सकता है। उनके इन दोनों प्रवचनों में आधुनिक काल सकता वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता। यदि अपने आपको GOpp में धर्म के विषय में जो मतभेद चल रहे हैं, उन पर भी परोक्ष रूप सुखी रखना हो तो सबसे पहले अपने आपको अनुशासन में रखो। से चिन्तन प्रकट किया गया है। इस संदर्भ में उन्होंने धर्म और बस यही संयम है। संयम से रहने वाला व्यक्ति कभी दुःखी नहीं हो सम्प्रदाय की विभिन्नता भी स्पष्ट की है तथा सच्चे धर्म को भी सकता, असफल नहीं हो सकता। इसी संयम पर विस्तार से विचार | स्पष्ट किया है। प्रकट किए गए हैं-"संयम का माधुर्य" शीर्षकान्तर्गत दिए गए आचार और विचार शीर्षक वाले प्रवचन में उन्होंने एक प्रवचन में! ज्वलंत प्रश्न उठाया है जो आज भी विद्यमान है। उन्होंने कहा सत्य को जीवन का अमृत बताया गया है इसी नाम के प्रवचन “आज हमें अपनी दयनीय दशा पर विचार करना होगा कि वास्तव में और सत्य पर चलने की प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा है कि में हम व हमारा देश क्यों पिछड़ गया है? दूसरे देश आध्यात्मिकता आप भी सत्य की पगडंडी पर चलें तो आपका जीवन अमृतमय बन का दावा नहीं करते, फिर भी ईमानदारी और नैतिकता में हमारे 100000 जाए, शांतिमय बन जाय और आनन्दमय बन जाय। भारतीय देश से क्यों आगे बढ़ रहे है?" इसका उत्तर भी स्वयं ही उन्होंने संस्कृति तो इसी सत्य की उपासना द्वारा विश्व को शांति का संदेश इन शब्दों में दिया-"इसका कारण है कि वहाँ विचार और आचार देती आ रही है। का मेल है, कथनी और करनी का मेल ही जीवन को ऊँचा उठाता है।" (पृष्ठ २५)। जीने की कला में अपने कर्तव्यों को सुन्दर ढंग से पूर्ण ईमानदारी और निष्ठा के साथ पालन करने पर बल दिया गया है। आचार और विचार पर प्रकाश डालते हुए अपने इस ऐसा करने से ही भविष्य उज्ज्वल बन सकता है। 500 प्रवचन के अंत में उन्होंने कहा-“समाज में आज जो विचार और doc आचार के बीच चौड़ी खाई पड़ी हुई है उसे पाटा जाय। अन्यथा वह अगला प्रवचन है मानवता का अन्तर्नाद। इस प्रवचन में दिन दूर नहीं, जबकि विचार केवल विचार ही रह जायेंगे और मानवता पर विचार प्रकट करते हुए आत्म निरीक्षण करने की बात Page 800- कही गई है। उन्होंने कहा-"जब मानव हृदय में मानवता अपना आचार स्वप्न की वस्तु हो जाएगा। विचारों के अनुरूप जब हम Pho स्थायी निवास कर लेगी, मानवता को प्रतिक्षण प्रतिपल मनुष्य आचरण करें तभी समाज, देश और राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल भूलेगा नहीं। मानव मन में मानवता का अन्तर्नाद गूंज उठेगा। तभी है।" (पृष्ठ २८) जगत की सुख-शांति में वृद्धि होगी। तभी दुःख दारिद्र्य के बादल "चले चलो, बढ़े चलो" प्रवचन में जीवन के सही विकास के फट जायेंगे और सुख का सूर्य चमकने लगेगा। तभी मानव को लिए प्रगति करते रहने पर बल दिया गया है। इसमें बताया गया है अष्ट सिद्धि और नौ निधि की प्राप्ति का सा आनन्द आयेगा। कि “चर" धातु से आचार, विचार, संचार, प्रचार, उच्चार, राष्ट्रों, जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों में निर्माण का स्वरूप साकार उपचार आदि शब्द बनते हैं। इन सबके मूल में चलना है, चर हो उठेगा।" (पृष्ठ ९५) 2000 क्रिया है। आप भी अपने जीवन में चर को स्थान दीजिये। घबराइये "जिन्दगी की मुस्कान" नामक प्रवचन में प्रवचनकार ने Pos नहीं, आपका व्यक्तित्व चमक उठेगा, आपका विकास सर्वतोमुखी हो बताया-"आत्मिक दृष्टि से मुस्कान वहाँ है, जहाँ आत्मा के मूलभूत सकेगा, आपकी प्रतिभा चहुंमुखी खिल उठेगी। अपने मन-मस्तिष्क गुणों सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अस्तेय, अनासक्ति, क्षमा, का प्रवाह इसी ओर मोड़िये। दया, संयम आदि को अपनाया जाय और जीवन के प्रत्येक प्रसंग 'विवेक का प्रकाश' में विवेक पर विस्तार से प्रकाश डाला में दृढ़तापूर्वक इनका पालन किया जाय। जहाँ ये गुण नहीं होते हैं गया है। वास्तव में मानव जीवन में विवेक का सर्वोपरि स्थान है, और केवल शिष्टता, सभ्यता आदि बाहरी नैतिक गुण होते हैं, वहाँ सर्वप्रथम आवश्यकता है। विवेक को अपनाकर संसार को स्वर्गीय आत्मा की चमक-दमक नहीं बढ़ती, आत्मा की सच्ची मुस्कान मन्द सुखों के भण्डार से भरा जा सकता है। विवेक के द्वारा ही नारकीय पड़ जाती है। वास्तव में आत्मा तो इन सभी मुस्कानों की जननी है। परिस्थितियों को स्वर्ग के समान बनाया जा सकता है और विवेक अगर आत्मा के सद्गुण जीवन में नहीं आए तो जिन्दगी की को अपनाकर ही पशुत्व से मानवत्व और देवत्व की ओर अग्रसर । मुस्कान सर्वांग सम्पूर्ण नहीं होगी।" (पृष्ठ २१) राम00069 - मरमर Jain education international 50002065/0.02050566360.0902 CSR000000000 For Private & Personal Use Only DDD SDACODD 0 0.00.www.jblpolibrary Po.600000000000000000000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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