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________________ | । । वाग् देवता का दिव्य रूप ३८७ सीमित होने लगती है उधर संतुष्टि/शांति/सुख में वृद्धि होने । प्लास्टिक कवर लगा कर उनमें सुदृढ़ता, स्थायित्व और चमक पैदा लगती है। करने वाले हैं। तीन गुणव्रत पाँच अणुव्रतों में शक्ति का संचार इस अध्याय के अंन्तिम प्रवचन में परिग्रह से हानि, उसकी | करते हैं, उनमें विशेषता पैदा करते हैं, उनके परिपालन को स्वच्छ परिमाण विधि और अतिचारों पर विचार किया गया है। रखते हैं। कुछ आचार्यों ने इन सात उपव्रतों को शीलव्रत कहा है। उन्होंने प्रवचन का प्रारम्भ ही बहुत रोचक ढंग से किया है। उनका कहना है कि जैसे परकोटे नगर की रक्षा करते हैं, वैसे ही प और सांप दोनों ही जगत में हानिकारक माने जातेशील व्रत अणुव्रतों की रक्षा करते हैं। (पृ. ३८५) हैं, दोनों से बचकर चलना विवेकी मनुष्य के लिए अनिवार्य है। इस प्रवचन में दिशा परिमाण-व्रत का स्वरूप, विधि, सावधानी, दोनों ही त्याज्य है, इसलिए उनका संग न करना ही उचित है।" | इसका अन्य व्रतों पर प्रभाव और इसके अतिचारों पर भी प्रकाश (पृष्ठ ३५९)। डाला गया है। प्रारम्भ में इसके उद्देश्य और महत्व को सुन्दर ढंग से आगे परिग्रह को पाप बताते हुए कहा है-“परिग्रह भी एक समझाया गया है जिसमें कुछ दृष्टान्त भी दिए गए हैं और शास्त्रीय प्रकार का पाप है। क्योंकि वह मानव जीवन को पतन के गहरे गर्त उद्धरण भी। में डाल देता है। उसकी विवेक बुद्धि विचारशक्ति और सत्यशोधन दूसरा प्रवचन उपभोग, परिभोग-परिमाण : एक अध्ययन है। की रुचि को नष्ट कर देता है।" (पृष्ठ ३५९)। इस प्रवचन में मूल रूप से इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि पापों का केन्द्र परिग्रह शीर्षकान्तर्गत इस पर विस्तार से प्रकाश त्यागपूर्वक उपभोग करना सुखदायक है। जितना कम उपभोग होगा डाला गया है। परिग्रह को दोषों का आगार भी बताया गया है और उतना ही अधिक सुख मिलेगा। जो त्याज्य हैं उनका त्याग तो संग्रहवत्ति को विषमता का कारण बताया गया है। यह सत्य भी है। अनिवार्य है और जो वस्तुएँ दैनिक जीवन में काम नहीं आती जो आर्थिक दृष्टिकोण से समर्थ है वह तो सभी प्रकार का संग्रह । उनको भी उपभोग्य वस्तुओं की सूची में से निकाल देनी चाहिए। कर लेगा किन्तु जो व्यक्ति रोज कमाता है और रोज लाकर खाता इसके बाद जो वस्तुएँ शेष रहें, वे भी सब तो उपभोग में नहीं है वह बेचारा संग्रह कैसे कर सकता है। वहाँ तो पेट भरने की ही आतीं, अतः उनका भी त्याग करके चीजों की संख्या या मात्रा सबसे बड़ी समस्या है। इससे समाज में विषमता बढ़ती जाती है। | निर्धारित कर लेनी चाहिए। इस प्रकार यदि कोई श्रावक अपने और फिर यही बढ़ी हुई विषमता संघर्ष का कारण बन जाती है। जीवन में नियत वस्तुओं का निश्चित मात्रा या संख्या में उपभोग इससे समाज में अशांति फैल जाती है। यदि इनसे बचना है और करता है तो उसके जीवन में ज्ञान एवं विवेक का प्रकाश बढ़ता सुखी होना है तो इच्छा परिमाण व्रत को स्वीकार कर लेना चाहिए। 1 जाता है। उनको स्वास्थ्य एवं सुख-शांति का लाभ भी मिलता है। परिग्रह परिमाण व्रत की ग्रहणविधि को भी भलीभांति दूसरे व्यक्ति भी उन पदार्थों से वंचित नहीं रहते। लगभग इन्हीं समझाया गया है। इसमें बताया गया है कि परिग्रह परिमाण व्रत को बातों पर यह प्रवचन केन्द्रित है। नौ प्रकार के बाह्य परिग्रहों को मर्यादा करके ग्रहण किया जाता है। । अगले प्रवचन में उपभोग-परिभोग-मर्यादा और व्यवसायइसे ग्रहण करने वाले को एक बात अवश्य ध्यान में रखनी है कि मर्यादा पर विचार प्रकट किए गए हैं। इसमें पहले उपभोग- परिभोग परिग्रह मुख्यतः इच्छा एवं मूर्छा से होता है, इच्छा और मूर्छा का परिमाण के स्वरूप और प्रकार को समझाया गया है। यहाँ उत्पत्ति स्थान मन है। मन का संबंध आभ्यन्तर परिग्रह के साथ है। शास्त्रकारों द्वारा बताए गए संबंधित छब्बीस बोलों को स्पष्ट किया इच्छा परिमाण व्रत के पाँच दोष हैं जिन्हें अतिचार कहा गया । गया है। फिर मर्यादा की मर्यादा बताई है। भोजन की दृष्टि से है। इनसे बचना चाहिए। सप्तम व्रत के पाँच अतिचार बताकर आवश्यकताओं के विवेक को विस्तारपूर्वक समझाया है। श्रावक धर्म दर्शन का तीसरा अध्याय गुणव्रत : एक चिन्तन है। पिछले अध्याय में अणुव्रतों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया, आवश्यकता के लिए व्यवसाय और व्यवसाय के पीछे श्रावक की दृष्टि कैसी होनी चाहिए इस पर भी विचार किया गया है। अब आगे दिशा परिमाण व्रत पर प्रकाश डाला जा रहा है। ये दिशा । परिमाण व्रत आदि क्या हैं? इस प्रश्न का उत्तर प्रवचनकार के इसमें कुछ वर्जित व्यवसायों का उल्लेख भी किया गया है। शब्दों में इस प्रकार है-“पाँच अणुव्रत तो मूल व्रत हैं। परन्तु इसके श्रावक के लिए आठवां अनर्थदण्ड-विरमण व्रत बतलाया गया पश्चात् श्रावक जीवन में अपनाए जाने वाले जो सात व्रत हैं, वे । है। इसी का विश्लेषण इस अध्याय के अंतिम प्रवचन में किया गया व्रत तो अवश्य हैं, परन्तु वे गुणव्रत और शिक्षाव्रत हैं। गुणव्रत है। अनर्थदण्ड की विभिन्न आचार्यों ने जो भी अलग-अलग व्याख्या अणुव्रतों में विशेषता पैदा करने वाले हैं। अणुव्रत सोना हों तो की है, उनको प्रस्तुत किया गया है। इसके पूर्व दण्ड के अर्थ को गुणव्रत उस सोने की चमक-दमक बढ़ाने के लिए पालिश के समान भलीभांति समझाया गया है। आचार्य उमास्वाति ने अनर्थ दण्ड में हैं। अणुव्रत पुस्तकें हैं तो गुणव्रत उन पर जिल्द बाँध कर और अर्थ-अनर्थ शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-"जिससे 2 40-4500 Bedo20 4 वस्तारत ल तGEORGER Jain Education International 99EEPतिpिarsamp60.0000000000000 Eo Private swersionatue ghode DRDOHDDOEGE0% 50000 Swww.jainelibrary.org D
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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