SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 9GC POPO90010.GODD १३८८ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । उपभोग-परिभोग होता हो, वह श्रावक के लिए अर्थ है और इससे । (३) काल-सामायिक और (४) भाव सामायिक को भी भली-भांति जो भिन्न हो अर्थात् जिससे उपभोग-परिभोग न होता हो, वह अनर्थ । समझाया गया है। अंत में चार शुभ भावनाओं का विवरण दिया है।" इसके लिए जो मन-वचन-काया की दण्ड रूप प्रवृत्ति-क्रिया हो, गया है। ये चार शुभ भावनाएँ हैं, १-मैत्री, २-करुणा, ३-प्रमोद, वह अनर्थ दण्ड है। उसका त्याग अनर्थ दण्ड विरति नामक व्रत है। ४-माध्यस्था इसके पश्चात् प्रवचनकार गुरुदेव ने पाँच मूल अणुव्रतों पर र सामायिक व्रत की विधि, शुद्धि, और सावधानी पर प्रकाश सार्थक-निरर्थक दण्ड का विचार प्रस्तुत किया है। तत्पश्चात् | डाला गया है, इस अध्याय के तृतीय प्रवचन में। प्रारम्भ में साधु अनर्थदण्ड की एक और व्याख्या प्रस्तुत की है जो संक्षेप में इस और श्रावक की सामायिक में अन्तर स्पष्ट किया गया है फिर प्रकार है-"किसी आवश्यक कार्य के आरम्भ समारम्भ में त्रस श्रावक की सामायिक की मर्यादा बताई गई है। यहाँ यह भी स्पष्ट और स्थावर जीवों को जो कष्ट होता है, वह अर्थदण्ड है और. किया गया है कि गृहस्थों और साधुओं के सामायिक व्रत में आदर्श निष्प्रयोजन ही बिना किसी कारण के केवल प्रमाद, कुतूहल, एक ही है किन्तु सामायिक ग्रहण पाठ में अन्तर है। इस अन्तर के अविवेक आदि के वश जीवों को कष्ट देना अनर्थदण्ड है।" कारण को भी स्पष्ट कर दिया गया है। इसके पश्चात् सामायिक की (पृष्ठ ४६१) विधि बताई गई है। विधि बताने के पश्चात् बताया गया है कि सामायिक कब, कितनी देर, कैसे और कहाँ करनी चाहिए। अनर्थदण्ड के आधार स्तम्भों को भी विस्तारपूर्वक समझाया सामायिक का एक प्रतिज्ञा पाठ भी है। इस प्रतिज्ञा पाठ का गया है। अन्त में सावधान करते हुए फरमाया है कि इन व्रतों के पालन में पाँच दोषों से बचना चाहिए। वे पाँच दोष इस प्रकार विश्लेषण भी भलीभांति किया गया है। बताए गए हैं-कन्दर्प, कौत्कच्य, मौखर्य, संयक्ताधिकरण और अंत में सामायिक के अतिचारों का उल्लेख करते हुए इनसे उपभोग-परिभोगातिरिक्तता। दूर रहकर शुद्ध सामायिक करने से शाश्वत सुख की प्राप्ति होना बताया गया है। सामायिक केवल परलोक के लिए ही नहीं, इस अन्त में कहा है-“अनर्थदण्ड विरमणव्रत से मन-वचन-काया से लोक के लिए भी हितकारी है। इसलिए अत्यन्त श्रद्धाभक्ति के साथ होने वाली समस्त प्रवृत्तियां शुद्ध होती है। प्रवृत्तियाँ निरवद्य हुए उत्साहपूर्वक सामायिक की साधना करने की प्रेरणा प्रदान की गई बिना आगे के सामायिक आदि व्रतों की आराधना नहीं हो है। सकती है। इसलिए जैसे किसान खेती करने से पहले खेत में उगे हुए निरर्थक घास-फूस, झाड़-झंखाड़ को उखाड़ फेंकता है, तभी देशावकाशिक व्रत : स्वरूप और विश्लेषण चौथा प्रवचन है। उस भूमि में बीज बोने पर सुन्दर खेती हो सकती है, वैसे ही श्रावक एक दिन, एक रात, प्रहर, घंटा आदि तक उस सीमा का गृहस्थ साधक को सामायिक आदि की साधना करने से पूर्व संकोच कर लेता है। इसी अल्पकालिक क्षेत्र सीमा निर्धारण का नाम अनर्थदण्ड के घास फूंस या झाड़ झंखाड़ को उखाड़ फेंकना देशावकाशिक व्रत है। श्रावक के बारह व्रतों में यह दशवां व्रत है चाहिए।" (पृष्ठ ४७८) और चार शिक्षाव्रतों में दूसरा व्रत है। इस संग्रह के अंतिम अध्याय को 'शिक्षाव्रत : एक पर्यालोचन' प्रवचनकार के अनुसार देशावकाशिक व्रत आत्मशक्ति बढ़ाने में शीर्षक दिया गया है। जैसा कि पूर्व में ही बता दिया गया था कि सहायक है। इस अध्याय में कुल सात प्रवचन संग्रहीत है। प्रथम प्रवचन जो देशावकाशिक, संवर के रूप में अल्पकाल के लिए ग्रहण सामायिक व्रत की सार्वभौम उपयोगिता पर है। सामायिक व्रत का किया जाता है उसमें उपभोग्य-परिभोग्य वस्तुओं से संबंधित चौदह नाम किसी भी जैन धर्मावलम्बी के लिए अनजाना नहीं है। इसी व्रत । नियमों का चिन्तन करने की भी प्रथा है, उन्हीं चौदह नियमों को की सार्वभौम उपयोगिता पर यहाँ विचार प्रकट किए गए हैं। आगे समझाया भी गया है। दूसरे प्रवचन में सामायिक के व्यापक रूप को स्पष्ट किया गया । देशावकाशिक व्रत के वर्तमान में प्रचलित स्वरूप पर भी S00 है। सामायिक का अर्थ इस प्रकार बताया गया है-“सम, आय और विचार प्रकट किया गया है। वर्तमान काल में स्थानकवासी सम्प्रदाय १०० इक तीनों से मिलकर सामायिक शब्द बना है। सम का अर्थ है, में इसे दयाव्रत या छह कायाव्रत कहा जाता है। देशावकाशिक व्रत समभाव, सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति, आय का अर्थ है-लाभ। जिस के पाँच अतिचार हैं। सावधानी ही नहीं बहुत ही सावधानी पूर्वक प्रवृति से समता-समभाव का लाभ अभिवृद्धि हो वही सामायिक इन अतिचारों से बचना चाहिए। है।" (पृष्ठ ५०७) आगे इसे और भी विस्तार से समझाया गया है। आत्म निर्माण का पुण्य पथ है-पौषधव्रत। पाँचवें प्रवचन में इसके पश्चात् द्रव्य सामायिक और भाव सामायिक को इसी व्रत पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इस प्रवचन में समझाकर सामायिक का विराट स्वरूप स्पष्ट किया गया है। बताया गया है कि धर्म ध्यान हीन पौषध व्रत में आत्मचिन्तन हो - सामायिक के चार रूप-(१) द्रव्य सामायिक, (२) क्षेत्र सामायिक, } नहीं सकता। प्राचीन कालीन श्रावकों का वर्णन पढ़ने से मालूम होता 16 005 10D SARGE2906 Jan dec non Interational 5605666900.00000000000000000000ROOR 20.00.00DPROHTRANSarsonal use only eDaba.00000008066 wwwijamblpatra
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy