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________________ 6 8 .00000000000000000000000000000000000 वाग् देवता का दिव्य रूप ३८३565960 GUS 1306 Page 129600 [9004 Fa श्रावक धर्म दर्शन : एक अनुशीलन E -दिनेश मुनि श्रद्धेय उपाध्यायश्री की प्रवचन शैली जितनी रोचक थी उतनी ही सार गर्भित और तथ्यों से परिपूर्ण। वे जिस विषय पर भी प्रवचन देते उसका सर्वांग सुन्दर विवेचन तथा विविध शास्त्रीय उद्धरणों व दृष्टान्तों से हृदयस्पर्शी बना देते थे कि श्रोता तन्मय होकर सुनता रहता और बहुत कुछ प्राप्त कर लेता। प्रस्तुत है उपाध्यायश्री की प्रसिद्ध प्रवचन पुस्तक श्रावक धर्मदर्शन पर एवं समीक्षात्मक विश्लेषण श्री दिनेश मुनि जी द्वारा। -संपादक 0920-DOD श्रावक जैन धर्म संघ का एक प्रमुख घटक है। चतुर्विध संघ में। और भाव की आराधना करता है। २-इसका दूसरा अर्थ श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका सम्मिलित हैं। इन चारों की उपस्थिति आवश्यकताओं को कम करने के संदर्भ में किया जाता है। तीर्थ के समान है। इस प्रकार श्रावक शब्द का व्यापक अर्थ है। श्रावक को व्रत श्रावक धर्म दर्शन पर विचार करने से पहले यह आवश्यक ग्रहण करने से व्रती भी कहते हैं। वह श्रमणों की उपासना करता है प्रतीत होता है कि हम श्रावक के अर्थ को भली-भांति समझ लें। इसलिए श्रमणोपासक भी कहलाता है। वह अणुव्रतों का पालन श्रमण संघीय आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. ने लिखा है कि करने से अणुव्रती भी कहलाता है। उसके अन्य नाम इस प्रकार जैन साहित्य में श्रावक शब्द के दो अर्थ प्राप्त होते हैं। १-श्रु धातु बताए गए हैं-व्रताव्रती, विरताविरति, देशविरति, देशसंयति और से बना है जिसका अर्थ सुनना है। तात्पर्य यह कि जो श्रमणों से संयमासंयमी। घर में रहने के कारण से गृहस्थधर्मी और उपासना श्रद्धापूर्वक निर्ग्रन्थ प्रवचन सुनता है, अपनी सामर्थ्यानुसार उस पर करने से उपासक कहलाता है और उसमें श्रद्धा की प्रमुखता रहने आचरण करने का प्रयास करता है, वह श्रावक है। सामान्यतः से वह श्राद्ध भी कहलाता है। श्रावक का यही अर्थ मान्य है। २-श्रावक का दूसरा अर्थ "श्रा इस प्रकार यदि हम आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में कहें तो परके" धातु पर आधृत है। इससे संस्कृत रूप श्रापक बनता है। श्रावक रत्नों का पिटारा है। ऐसे श्रावक के धर्म की सांगोपांग श्रापक की अर्थ संगति श्रावक के साथ नहीं बैठती है। विवेचना राष्ट्र संत, राजस्थान केसरी, अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव श्रावक शब्द के अक्षरों के आलोक में भी इसका अर्थ किया उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. ने अपने प्रवचन संग्रह गया है। इसके तीनों अक्षरों के आधार पर जो अर्थ किया गया है, "श्रावक धर्म दर्शन' में की है। इस ग्रंथ रत्न का सम्पादन किया है वह निम्नानुसार है उन्हीं के सुयोग्य शिष्यरत्न साहित्य वाचस्पति, सिद्धहस्त लेखक, १-श्रा : यह शब्द दो अर्थ का प्रतीक है। १-जो जिन प्रवचन पर कुशल संपादक, प्रवचनकार आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी म. दृढ़ श्रद्धा रखता है। २-जो श्रद्धापूर्वक जिनवाणी का श्रवण सा. ने। आचार्य सम्राट ने इस ग्रन्थ रत्न पर अपनी विस्तृत भूमिका करता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जिन लिखी है। इसी भूमिका में उन्होंने श्रावक धर्म दर्शन के संबंध में लिखा है-"श्रावक धर्म दर्शन श्रद्धेय सद्गुरुवर्य के द्वारा प्रदत्त प्रवचन पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए श्रद्धापूर्वक श्रवण करना। प्रवचनों का सरस संकलन है, आकलन है। श्रावक धर्म से संबंधित २-व : एक अर्थ सत्कर्म वपन के रूप में लिया जाता है और सभी विषयों पर गुरुदेवश्री ने बहुत ही गहराई से चिन्तन किया है, दूसरा अर्थ है वरण अर्थात् जो बात धर्म, समाज व आत्मा के अनेक ज्वलन्त प्रश्नों का सम्यक् समाधान किया है। व्रत के नाम हित के लिए है, उसे वरण करना। तीसरा अर्थ विवेक के रूप पर पनपने वाली अनेक भ्रान्त धारणाओं का निरसन किया है। जहाँ में लिया जाता है। यानी श्रावक की प्रत्येक क्रिया विवेकपूर्वक । तक मुझे ज्ञात है वहाँ तक हिन्दी में इस प्रकार का कोई ग्रन्ध नहीं होती है। है जो श्रावकाचार पर विस्तार से विश्लेषण करता है। गुरुदेवश्री के ३-क : क अक्षर भी दो अर्थ का प्रतीक है १-पाप को काटने प्रवचनों में यह एक अनूठी विशेषता है कि न तो श्रोता ही ऊबता वाला। श्रावक कसी भी पापकर्म में प्रवृत्त नहीं होता, कदाचित् । है और न पाठक ही। वे अपने विचार विलक्षण और लाक्षणिक किसी परिस्थिति विशेष के कारण फँस भी जाता है तो अपनी शैली में इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि जिन्हें श्रावकधर्म के संबंध विवेक बुद्धि से अपने आपको पाप कर्म से बचा लेता है। इसके } में किंचित् भी जानकारी नहीं है वह इस ग्रंथरत्न को पढ़कर पूर्ण po अतिरिक्त वह पूर्वकृत पाप को काटने के लिए दान, शील, तप } बोध प्राप्त कर सकता है और जिन्हें जानकारी है उन्हें भी बहुत लन यमण्डपमा एनालगडावलण्यालय Sandalan internationaborseD 0000000 20226 00RDurinare theronelenoDODDOS 945 Com janeligratorga 0050 20-00-005
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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