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________________ ३८४ कुछ नया जानने को मिलेगा। वस्तुतः उनके प्रखर चिन्तन में धर्म और दर्शन के, ज्ञान और विज्ञान के साहित्य और संस्कृति के, इतिहास और पुरातत्व के नये-नये उन्मेष खुलते हुए प्रतीत होते हैं।" (पृष्ठ २५) । प्रस्तुत प्रवचन संग्रह को सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित रूप में संपादित कर प्रकाशित करवाया गया है। यह संग्रह कुल चार अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय के अनुरूप ही उसमें प्रवचनों का संग्रह किया गया है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं। कि श्रावक-धर्म से संबंधित सभी विषयों का विभाजन चार भागों में करके फिर उनका उप-विभाजन कर विषय वस्तु का प्रतिपादन किया गया है। ऐसा करने से पाठकों के लिए काफी सुविधा प्रदान कर दी गई है। इस प्रवचन संग्रह में संग्रहीत प्रवचन अध्याय वार इस प्रकार है । अध्याय १ - व्रत : एक विवेचन इस अध्याय में कुल चार प्रवचन दिए गए हैं। यथा (१) मानव जीवन की विशेषता, (२) व्रत ग्रहण स्वरूप और विश्लेषण (३) व्रतनिष्ठा एवं व्रतग्रहण विधि और (४) अणुव्रती, श्रमणोपासक और श्रावक । अध्याय २- अणुव्रत : एक विश्लेषण शीर्षक से दिया गया है। और उसमें निम्नांकित ग्यारह प्रवचन संग्रहीत है : १. अहिंसा का सार्वभौम रूप, २. श्रावक की अहिंसा मर्यादा, ३. अहिंसा की मंजिल : श्रावक की दौड़, ४. सत्य जीवन का संबल, ५. श्रावक की सत्य की मर्यादा, ६. अस्तेयव्रत : साधना और स्वरूप, ७ श्रावक जीवन में अस्तेय की मर्यादा, ८. ब्रह्मचर्य की सार्वभोम उपयोगिता ९ श्रावक जीवन में ब्रह्मचर्य की मर्यादा, १०. इच्छा का सरोवर: परिमाण की पाल और ११. परिग्रह : हानि, परिमाण विधि, अतिचार। प्रवचनों की संख्या की दृष्टि से यह अध्याय शेष सभी अध्यायों से समृद्ध है। 7 अध्याय ३ : गुणव्रत एक चिन्तन के रूप में दिया गया है। इस अध्याय में कुल चार प्रवचन दिए गए हैं। यथा- १. दिशापरिमाणव्रत एक चिन्तन, २. उपभोग- परिभोग-परिमाण एक अध्ययन, ३ उपभोग- परिभोग-मर्यादा और व्यवसाय-मर्यादा, ४. अनर्थदण्ड विरमण व्रत : एक विश्लेषण । अध्याय ४ : शिक्षा व्रत : एक पर्यालोचन के अन्तर्गत कुल सात प्रवचन संग्रहीत हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं : १. सामायिक व्रत की सार्वभौम उपयोगिता, २. सामायिक का व्यापक रूप, ३. सामायिक व्रत विधि शुद्धि और सावधानी, ४. देशावकाशिक व्रत : स्वरूप और विश्लेषण, ५. पौषधव्रत : आत्मनिर्माण का पुण्य पथ, ६. श्रावक का मूर्तिमान औदार्य : अतिथिसंविभागव्रत और ७. संलेखना अन्तिम समय की अमृत साधना । Jan Education Intemational उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ श्रावक की एकादश प्रतिमाओं का वर्णन इस लिए नहीं किया गया कि उन प्रतिमाओं की साधना वर्तमान युग में नहीं होती है। (पृष्ठ २५-२६) संपादकीय। यदि परिचय के लिए एकादश प्रतिमाओं का विवरण बिल्कुल संक्षेप में दे दिया जाता तो अनुचित नहीं होता। अब हम इस संग्रह के प्रवचनों की विषयवस्तु का अवलोकन अध्यायानुसार करने का प्रयास करेंगे, जिससे पाठकों को प्रवचन संग्रह में विवेच्य विषयों की महत्ता का पता चल सके। प्रथम अध्याय का प्रथम प्रवचन मानव जीवन की विशेषता से सम्बन्धित है। श्रावक सबसे पहले मानव / मनुष्य होता है मानव और मानव जीवन को समझने से पहले उसके धर्म को समझना कठिन होता है। यही कारण है कि सर्वप्रथम मानव जीवन की विशेषताओं को लिया गया है। प्रारम्भ में यही बताया गया है कि विचारवान होने के कारण मनुष्य विश्व के समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ है। अन्य बातें तो सभी प्राणियों में प्रायः समान रूप से पायी जाती हैं। मनुष्य अपनी इच्छानुसार शुभ और अशुभ कर्म कर सकता है। भावना की चेतना उसे परिपूर्ण मात्रा में प्राप्त है उसके सहारे वह धर्माचरण भी कर सकता है और कर्मों की अच्छाई-बुराई का मूल्यांकन भी कर सकता है। कुछ ऐसी ही अन्य बातों पर प्रकाश डाला गया है। 'मानव जीवन की विशेषता' प्रवचन में प्रवचनकार ने सभी दृष्टियों से प्रकाश डालकर समझाने का प्रयास किया है। दूसरा प्रवचन व्रत ग्रहण स्वरूप और विश्लेषण' है। इसमें प्रारम्भ में 'मानव जीवन एक प्रश्न के अन्तर्गत प्रश्न उठाए गए है - मैं कौन हूँ, कहाँ से आकर मैं मानव हुआ? मेरा असली स्वरूप. क्या है ? मेरा संबंध किसके साथ है ? इस संबंध को मुझे रखना है। या छोड़ना है? अंतिम समय में क्या करोगे ? उपशीर्षकों के अन्तर्गत यह बताया गया कि एक मात्र धर्म ही अन्तिम समय में मनुष्य का साथी है। उसके पश्चात् धर्मपालन के लिए व्रत ग्रहण आवश्यक, व्रत एक पाल, एक तटबंध, व्रत अनिश्चित जीवन के लिए ब्रेक, व्रत स्वयं स्वीकृत मर्यादा, व्रत आत्मानुशासन, आध्यात्मिक जीवन की नींव व्रत, एक प्रतिज्ञा, व्रत से व्यक्ति विश्वसनीय एवं स्थिर व्रत एक प्रकार की दीक्षा, व्रत और योग-साधना, व्रत : एक प्रकार से आत्म संयम, व्रत आचार संहिता, व्रतों से जीवन-निर्माण, व्रत आत्मदमन रूप होने से सुखकारक, व्रत ग्रहण की आवश्यकता, व्रत सार्वभौम है। व्रत ग्रहण विचारपूर्वक हो, व्रत व्यवहार्य है और व्रत ग्रहण के लिए प्रेरणा आदि उपशीर्षकों के माध्यम से व्रत के माहात्म्य पर प्रकाश डाला गया है। इस व्रत के विषय में संपूर्ण जानकारी मिल जाती है और भ्रान्त धारणाओं का उन्मूलन हो जाता है। , तीसरे प्रवचन 'व्रत निष्ठा एवं व्रत ग्रहण विधि' में प्रायः सभी बातों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसका अध्ययन करने 03243 Ge For Private & Personal Use Only O Sasad 201 www.jairelibrary.org 2
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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