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________________ जना 10 में मिला। । वाग् देवता का दिव्य रूप ३८१door चार तीर्थ की स्थापना करते हैं उसके पश्चात पूर्व तीर्थंकर के उत्तर-भगवतीसूत्र शत. १२वें उद्दे. ५वें में उत्थानादि को अरूपी शासन वाले साधु को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। बताया गया है "उट्ठाणे, बले, कम्मे, वीरिए, पुरिसक्कार परक्कमे पार्श्वनाथ का अनुयायी गांगेय अनगार महावीर के पास आया एसणं कइ वण्णे? उत्तर में "तं चेव जाव अफासे पण्णत्ते" और “ठिच्चा" खड़ा रहा, महावीर जिन या नहीं प्रश्न पूछ शासन वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न जीव परिणाम विशेष को उत्थानादि कहते हैं। उत्थानः शारीरिक चेष्टा, कर्म५. प्रश्न-कितने कहते हैं कि केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर भ्रमणादि क्रिया, बल-शारीरिक सामर्थ्य, वीर्य-आत्मिक शक्ति, उसमें चार ज्ञान विलीन हो जाते हैं, जैसे सूर्योदय पर तारा आदि। पुरुषाकार पराक्रम स्वाभिमान होता है। अन्तराय कर्म के क्षय से Peop क्या यह ठीक है? अनन्तवीर्य-गुण प्रगट होता है। उत्तर-चार ज्ञान क्षयोपशम जन्य है और केवलज्ञान क्षायिक भगवती श. २, उद्दे. ८ में “असंसारसमा” कहा गया है। भाव जन्य है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में ऋषभदेव भगवान् के केवलज्ञान ९. प्रश्न-महाविदेह क्षेत्र का निवासी एक श्रावक कितने की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं “केवलमसहायं नट्ठम्मि तीर्थंकर की सेवा कर सकता है? छाउमथिए नाणे" केवलज्ञान उत्पन्न होने पर छद्मस्थ पणा विलीन हो गया। एक जीव में जघन्य एक ज्ञान पाया जाता है, उत्कृष्ट चार उत्तर-एक सौ एक तीर्थंकर की सेवा कर सकता है क्योंकि ज्ञान पा सकते हैं। पाँच ज्ञान एक जीव में नहीं पाते हैं। तीर्थंकरों की आयु ८४ लाख पूर्व की होती है और श्रावक की एक करोड़ पूर्व की होती है। प्रत्येक तीर्थंकर तैयासी लाख पूर्व गृहवास ६. प्रश्न-किसी साधु ने पुष्करार्ध द्वीप में पादपोपगमन संथारा | में रहकर एक लाख पूर्व शेष रहने पर दीक्षा लेते हैं। उनके मोक्ष POP किया हो और उसका एक पैर का कुछ हिस्सा मानुषोत्तर पर्वत के पधारने पर क्रमशः करोड़ पूर्व की आयु वाला श्रावक एक सौ एक ऊपर रह जाता हो और उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया हो तो वह तीर्थंकर की सेवा कर सकता है। आत्मा सिद्ध हो सकता है? - ____१०. प्रश्न-वर्तमान में २० तीर्थंकर विद्यमान हैं। उनकी एक उत्तर-नहीं हो सकता है क्योंकि मनुष्य क्षेत्र पैंतालिस लाख । श्रावक कितने तीर्थंकरों की सेवा कर सकते हैं ? योजन का है। उतनी ही सिद्धशिला है और सिद्धात्मा के प्रदेशों की विग्रह गति नहीं होती है। तत्वार्थसूत्र में कहा है “अविग्रहः जीवस्य" उत्तर-१३ तीर्थंकरों की सेवा कर सकते हैं सो कैसे? मेरु जीव की विग्रह गति कभी नहीं होती है। क्योंकि “विग्रहगती कर्म पर्वत के पूर्व पश्चिम में सोलह-सोलह विजय हैं। एक ओर । योगः" और सिद्धों में कर्म नहीं है। अतः विग्रहगति नहीं होती है। आठ-आठ विजय हैं। उनमें अभी आठवीं विजय में श्रीमंदिर स्वामी । ७. प्रश्न-चार दिशाओं में कौन-कौन-सी दिशा में सिद्ध भगवान् विराजित हैं, उनके मोक्ष पधारने के बाद में सातवीं विजय वाले अधिक हैं? तीर्थंकर होंगे उनके बाद में छट्ठी फिर पाँचमी, उसके बाद चौथी, तबतक । तीसरी, दूसरी पहली फिर आठवीं में तीर्थंकर होंगे, वैसे एक करोड़ उत्तर-प्रज्ञापना सूत्र तृतीय पद में “सव्व थोवा सिद्धा । पूर्व आयु में १३ तीर्थंकरों की सेवा कर सकता है। दाहिणुत्तरेणं पुरथिमेणं संखेज्जगुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया" सबसे थोड़े सिद्ध दक्षिण और उत्तर में हैं। पूर्व में संख्यात गुणे हैं ११. प्रश्न-स्थानांग सूत्र ३ ठा. पृ. ५३२ में मल्ली णं अरहा और पश्चिम में विशेषाधिक हैं। तिहिं पुरिससएहिं सिद्धिं मुण्डे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए "प्रश्न होता है कि मल्ली भगवती तीन सौ पुरुषों के साथ प्रतिशंका यह कैसे होगा? दीक्षित हुई तो वह रात्रि में श्रमणों के साथ कैसे रही होगी? और प्रत्युत्तर-दक्षिण और उत्तर में भरत और ऐरवत क्षेत्र है । छह राजा भी साथ में स्वयं दीक्षित हुए ऐसा उल्लेख स्थानांग के क्षेत्रफल की दृष्टि से ये बहुत छोटे हैं और इनसे महाविदेह क्षेत्र सातवें स्थान में है" तो वे रात्रि में साधु के साथ कैसे रहे? चौसठ गुणा बड़ा है वहाँ से सिद्ध होते हैं, ये ऋजुगति से सिद्धालय में पहुँचते हैं वे वहीं स्थित होते हैं। भरत ऐवत क्षेत्र के सिद्ध पूर्व उत्तर-स्थानांग की वृत्ति में अभयदेव सूरि ने “मल्लीजिनः और पश्चिम की अपेक्षा से कम होते हैं, भरत ऐरवत क्षेत्र में प्रायः स्त्रीशतैरपि स्त्रिभिः-मल्ली के साथ तीन सौ स्त्रियाँ प्रव्रजित हुई। दो आरे में ही सिद्ध होते हैं, पाँचों महाविदेह क्षेत्रों में से निरन्तर आवश्यक नियुक्ति की २२४ की दीपिका में पत्र ६३ "मल्लिस्त्रिभि । मोक्ष में जीव जाते रहते हैं, अतः अधिक है। स्त्रीशतैः" ८. प्रश्न-कितने सिद्धों में द्रव्य आत्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा १२. प्रश्न-ज्ञातासूत्र के प्रथम अध्ययन के १७५ सूत्र में कहा और उपयोगात्मा ये चार ही मानते हैं। वीर्यात्मा को नहीं मानते हैं।। है "तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं जाइ सरणो समुप्पज्जित्था । उनका कहना है कि उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम ये 1 “मति ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जातिस्मरणं ज्ञान होता है । शरीर के हैं सो कैसे? और उत्तराध्ययन ९ अ. की पहली गाथा में उवसंतो मोहणिज्जो" । 600000000000000000000000 RSR936s For Private spersonal use onl030900DODOODS 00000000000000000 002peacet ate300000000000 awww farnelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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