SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 498
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5000 en69028605965556 १३८० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । जिज्ञासाएँ और समाधान पूज्य गुरुदेव उपाध्यायश्री की प्रवचन शैली की रोचकता, गंभीरता और लेखन शैली का माधुर्य पाठक पान कर चुके हैं। वार्तालाप में गुरुदेव जितने विनोदी और सहज स्वभाव रहते थे प्रश्नोत्तर के समय उतने ही गंभीर और संतुलित समाधान प्रस्तुत कर जिज्ञासु को पूर्णतया संतुष्ट करने का प्रयास करते थे। गुरुदेव के पास अनेक जिज्ञासु स्वयं उपस्थित होते रहते थे, तथा दूर स्थित जिज्ञासुओं, श्रमण-श्रमणियों स्वाध्यायीजनों तथा श्रावकों आदि के प्रश्नों के पत्र द्वारा समाधान प्रदान किया करते थे। जो प्रश्न आते और उनके उत्तर प्रदान करते उनमें से महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर समय-समय पर गुरुदेवश्री अपनी डायरी में स्वयं अपने हाथ से भी लिखते थे, तथा शिष्यों द्वारा भी लिखवा लेते थे। प्रश्नोत्तरों की ५-७ डायरियाँ हमारे पास विद्यमान हैं। अगर सभी को संपादित कर प्रकाशित किया जाए तो तत्त्वज्ञान के ३-४ अच्छे ग्रंथ तैयार हो सकते हैं। यहाँ पर मात्र नमूने के रूप में प्रश्नोत्तरों की एक झलक प्रस्तुत है। -संपादक 9000 सवालाण १. प्रश्न-"णमो अरिहंताणं" पद में सामान्य केवलियों का २. प्रश्न-तीर्थंकर और सामान्य केवली में कौन समुद्घात समावेश होता है या नहीं? करता है? उत्तर-केवलज्ञान केवलदर्शन की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं है उत्तर-वीर विजय कृत प्रश्नचिन्तामणि में कहा है किन्तु तीर्थंकर के शरीर में एक हजार आठ शुभ लक्षण होते हैं यः षण्मासाधिकायुष्को, स लभते केवलोद्गमम्। "अट्ठसहस्स लक्खणधरा" (उत्तरा अ. २२) तथा चौंतीस अतिशय और पैंतीस वाणी के गुणों से युक्त होते हैं। अतः सामान्य केवली करोत्यसौ समुद्घातमन्ये कुर्वन्ति वा न वा॥ का ग्रहण प्रथम पद में नहीं होता है। चउसरणपइन्ना की ३२वीं गुणस्थान क्रमारोह में भी कहा हैगाथा में भी कहा है-“केवलिणो परमोही से सब्बे साहूणो" अथवा "छम्माउसेसे उप्पन्न, जेसिं केवलं नाणं। अरिहंत में बारह गुण होते हैं ते नियमा समुग्घाया, सेसा समुग्घाया भइयव्वा॥" अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः दिव्यध्वनिश्चामरमासनञ्च। जिसका आयुष्य छह मास से कुछ अधिक शेष रहे उस समय भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्यातिहार्याणि जिनेश्वराणां। जिसको केवलज्ञान उत्पन्न होता है वह समुद्घात करता है, उसके १. अशोक वृक्ष, २. देवकत पुष्प वृष्टि, ३. दिव्यध्वनि, । सिवाय दूसरे समुद्घात करते भी हैं या नहीं भी करते हैं। ४. चामर युगल, ५. सिंहासन, ६. भामण्डल, ७. देव दुन्दुभि और औपपातिक सूत्र की वृत्ति में कहा है- “अन्तर्मुहूर्त शेषायुः । ८. तीन छत्र। तीर्थंकरों-अरिहंतों के ये आठ देव कृत अतिशय हैं, समदघातं ततोबजेत" जिसका आयष्य अन्तर्महर्त जितना बाकी रहे.. जो सामान्य केवलियों के नहीं होते। समवायांग सूत्र में भी कहा है- । उसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वही समुद्घात करते हैं। (तीर्थंकर आगासगयं चक्कं आगासगयं छत्तं आगासियाउ सेयवर चामराओ।। को केवलज्ञान बहुत समय पूर्व ही उत्पन्न हो जाता है।) आगास फलियामयं सपायपीढं सीहासणे- -समयांग ३४ ३. प्रश्न केवली भगवान् को मरण वेदना होती है या नहीं? अरिहंत तीर्थंकर के जन्म समय छप्पन दिक्कुमारिकाएँ आती उत्तर-नहीं होती है क्योंकि १४वें गुणस्थान में न समुद्घात है, हैं। चौंसठ इन्द्र आते हैं। दीक्षा लेते ही मनःपर्याय ज्ञान उत्पन्न होता न किसी कर्म की उदीरणा है। मोक्ष जाते समय जीव के आत्म-प्रदेश है। इन्द्र देवदृष्य वस्त्र देते हैं। केवलज्ञान होते ही देव समवसरण की सर्वांग से युगपत निकलते हैं। रचना करते हैं। गणधर होते हैं। ४. प्रश्न-विद्यमान तीर्थंकर के समय पूर्व तीर्थंकर का शासन । अरिहंत तीर्थंकर की आगति दो गति की है, देव और नरक । चलता है या नहीं? गति की। केवली की आगति चारों गति की होती है, अतः अरिहंत और सामान्य केवली में अन्तर है। उत्तर-प्रत्येक तीर्थंकर के समय एक ही शासन चलता है। दो। शासन का अस्तित्व शंकाशील बनता है। एक-दूसरे के पक्ष की एक पल्योपम में असंख्य करोड़ पूर्व बीत जाते हैं। मजबूती करने के लिए समत्वभाव घटता है। इसलिए "संका सम्मत्तं । एक पल्योपम में असंख्य तीर्थंकरों का शासन बीत जाता है। नासइ" कहा है। तीर्थंकर माता के कुक्षि में आने के पहले पूर्व । एक एक करोड़ पूर्व में एक-एक तीर्थंकर नरक स्वर्ग से च्यव । तीर्थंकर के शासन में केवलज्ञान उत्पन्न होना बन्द हो जाता है और कर आते हैं तो एक पल्योपम में असंख्य तीर्थंकर हो जाते हैं। जब तक तीर्थंकर जन्में, दीक्षा लें, केवलज्ञान उत्पन्न हो उसके बाद । 00000 0 A0000.0000000000000000000000000000000 000.00000800GONOM Jan Education International 0000000000000000000OD.EOAPrWater Personal use only S DOES www.jainelibrary.org 6.200000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy