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________________ DOO. GDSENOVOLENEWALAJUR-16 ३७९ मौन व्रत से धैर्य गुण का प्रेम उत्पन्न होता है। अरे! स्वयं शीघ्र अद्भुत सामर्थ्य आ जाता है। मौनी सदा हृदय में परितोष प्राप्त करता है और विस्मृत हुआ विषय याद आ जाता है।।४।। } वाग् देवता का दिव्य रूप मौनव्रताद् भवति धैर्यगुणानुरक्तिः, सामर्थ्य मद्भुतमहो! स्वयमेति सद्यः। मौनी सदा हि हृदये परितोषमेति, साक्षादुपैति विषयो हृदि विस्मृतो यः।।४।। मौनव्रतं प्रतिदिनं न हि कोऽपि पातुम्, शक्नोत्यतो दिनगणाद् दिनमेकमन्ते। चिन्वन् तदा व्रतमिदं परिपालयेत्सयस्माद् भवेत्स्वयमहो! मनसो निरोधः॥५॥ मौनव्रत को प्रतिदिन कोई नहीं रख पायेगा, अतएव दिनों में से । किसी एक दिन को अन्त में मौन रख सकता है, जिससे कि मन का निरोध स्वयं हो जाये! ॥५॥ भारतवर्षपञ्चकम् भारतवर्ष पञ्चकम सर्वाभितुभिः सदाप्यनुगतो यत्राऽस्ति गङ्गा नदी, सर्वोच्चोऽस्ति हिमालयः सुषमिता कश्मीर भूमिस्तदा। कस्तूरीहरिणा भ्रमन्ति बहवो विश्वेऽपि ये दुर्लभाः, दिव्या संस्कृतगीरिहास्ति भुवने देशोऽस्ति मे भारतः।।१॥ SO9RRESS देशेऽस्मिन्मुनयो हृषीकजयिनो जाताश्च सन्तोऽपरे, विख्याताः प्रथमेषु केऽपि गुणिनां कैवल्यवन्तोऽभवन्। विद्वान्सोऽप्यतुलाः सुतीक्ष्ण मतयो ज्योतिर्धरा योगिनः, येषां कोऽपि पुरो निदान निपुणः स्थातुं न शक्तः सुधीः॥२॥ यह मेरा भारत देश संसार में एक ही है। सभी ऋतुएँ एक पश्चात् आती रहती हैं। यहाँ पर ही गंगा नदी है। यहाँ पर ही सबसे ऊँचा पहाड़ हिमालय है। यहाँ पर सुन्दर भूमि काश्मीर है। संसार में दुर्लभ कस्तूरी के हिरन यहाँ है। यहाँ पर ही दिव्य वाणी का संस्कृत का प्रचार-प्रसार है॥१॥ इसी देश में जितेन्द्रिय ऋषि, मुनि और महात्मा पुरुष हुए हैं, जिनको केवलज्ञान प्राप्त था। अनोखी सूझ-बूझ के धनी, अद्भुत DDIDI प्रतिभा के योगी हो गए हैं। ज्ञानी पुरुष भी यहाँ ऐसे हुए हैं कि जिनकी तुलना नहीं हो सकती और संसार का कोई विद्वान जिनका सामना नही कर सकता था ॥२॥ FOR सोने की चिड़िया कहा जाने वाला यह ऐसा गिरा कि यहाँ के शासकों ने मतिभ्रष्ट होने से नर राक्षसों अथवा म्लेच्छों को बुलाया। अप्राप्य ग्रन्थ भी जिन्होंने अग्नि में जला कर राख कर राख दिये। आज एकता के नाम पर भ्रष्ट हो रहे हैं ॥३॥ देशोऽयं न्यपतद् हिरण्यविहगो राज्ञा मतेभ्रंशनात्, आहूता इह राक्षसा नृपतिभिर्दुष्टैर्विरोधात् स्वयम्। अप्राप्या निधयो मतेश्च विदुषां नष्टाः कृशानोर्मुखे, किं ब्रूमो वयमेकता-विषयतो भ्रष्टा भवामोऽधुना ॥३॥ ज्ञात्वाऽहं समयोचितं पुनरिदं देशस्य वृत्तं परम्। प्राचा वोचं कथयान्यहो स्वय महं वृत्तं प्रसंगे तरत्। देशोऽयं जगतोऽस्ति कोऽपि यशसः पात्रं यथार्थं तदा, मूर्तिर्वा तपसः सतां पुनरियं सत्यस्य किञ्चिद् गृहम्॥४॥ स्वर्गोऽयं भुवने तदाऽस्ति जनता देशं मदीयं समा, ख्यातीमं कथयान्यहं पुनरिमं यावद्यसो साम्प्रतम्। आधर्म जगतोऽप्यसौ जनपदो नास्त्येव मन्ये स्वयम्, कोऽन्योऽसौ तुलनामपीह सकले लोके भजेताऽपरः।।५।। जानकर ही मैंने अप्रासङ्गिक विषय समयोचित कर लिया है। विश्व प्रसिद्ध यह देश कभी था। तप और सत्य की प्रतिमा था कभी॥४॥ | 3600 संसार में तब यह स्वर्ग था। संसार भर की जनता ऐसा कहती है। जहाँ तक धर्म की स्थिति है, इसका कोई जनपद मुकाबला नहीं DDLA कर सकता। असल में कोई देश आज भी, जबकि नष्ट भ्रष्ट हो चुका है।॥५॥ as. F acg 1080P gangRRIOR RDO O janerication international S8 DSODOOTrvate Personal use only ष्तत्वहस्ताकस्तास्तकात 0 3600 NDRO 900999606.0.30
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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