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________________ ३७६ 25000 Poop त्रिकालान उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सदा आप्त पुरुषों के द्वारा श्रुतवचन, तर्क और आगम के साथ जो त्रिकाल में एकार्थ रहता है वह धर्म होता है। अपनी इच्छा के अनुसार कहा गया धर्म विषय नहीं होता, जैसा कि मर्जी मुताबिक कामी पुरुषों ने धर्म बताया है॥४॥ भगवान महावीर ने विद्वानों की सभा में प्रश्न किया था कि ये वेद सब मेरे अहिंसा मत को बताते हैं। विद्वज्जन बतायें कि यज्ञ में मूक पशुओं को मारते हैं, यह श्रुति मुख से यथार्थ है ?॥५॥ BAD सदाऽऽप्तोक्ति द्वारा श्रुतवचनतर्कागमयुतः, त्रिकालऽनन्यार्थो निहितविषयो धर्म इति मे। निजेच्छाऽभिव्यक्तो भवति न पुनर्धर्मविषयः, यतेच्छाचारैस्तैरभिक पुरुषैर्धर्म इति सः॥४॥ महावीरः स्वामी सदसि विदुषां प्रश्नमकरोत्, इमे वेदाः सर्वेऽप्यभिदधति धर्म मम मतम्। 300 वदेयुर्विद्वान्सो विदधति वधं यागविषये पशूनां मूकानां कथमपि यथार्थ श्रुतिमुखात्।।५।। अभूवन्मौनास्ते किमपि न वचस्तेऽप्युदतरन्, यतः सर्वज्ञोऽसौ श्रुतिमपि मुनिर्वेत्ति नितराम्। तदा मांसासक्तान् परमविदुषोऽसावमिदधी, यथेच्छं श्रुत्यर्थं वदथ पुनरस्मान्न हि रुचिः॥६॥ GOOD मुनिज॑नो नित्यं विहरति यथेच्छं प्रतिदिनम्, चतुर्मासान् वृष्टेर्गमयति पुरे वा पुरि तदा। परन्त्वेष स्वीयं विधिमपि न हातुं प्रभवति, प्रतिज्ञातं कार्यं गुरुवचनतोऽयं प्रकुरुते॥७॥ महाप्रतिष्ठो जिन धर्म एको, विराजते धर्मसमूहमध्ये। न कोऽपि धर्मः परमोऽस्ति चातो, नमाम्यहं जैनमिमं सुधर्मम् ॥८॥ (भगवान् महावीर के प्रश्न को सुनकर) विद्वान् चुप हो गये और कोई भी उत्तर नहीं दे पाया। क्योंकि भगवान् त्रिकालज्ञ केवली थे, वे वेदों को जानते थे! तब उन दिद्वानों को जो मांसासक्त थे, उनको भगवान् महावीर स्वामी ने कहा कि आप इच्छानुसार वेदों के अर्थ लगाते हो, अतः मेरी कोई कहने की इच्छा नहीं है॥६॥ जैन मुनि प्रतिदिन इच्छानुसार विहार करता है, केवल बरसात में चार महीनों तक नगर या नगरी में बिताते हैं, किन्तु ये अपने प्रतिक्रमण आदि धर्म को नहीं छोड़ते और गुरुवचन से प्रतिज्ञात कार्य को अच्छी तरह करते हैं॥७॥ सभी धर्मों में यह जिनधर्म महाप्रतिष्ठ है। इससे बड़ा कोई धर्म नहीं है। अतः इस जैनधर्म को मैं प्रणाम करता हूँ॥८॥ R EG65008 सत्यपञ्चकम् सत्यपञ्चकम् सत्स्वेव साधुर्भवती सत्यं सत्यस्य सिद्धिः कथिता पदसः। तस्माद्यथार्थं कथनं समाजे, वयं तदा सत्यमिदं वदामः॥१॥ 309 POS परन्तु सत्यं परमस्ति मूलं, धर्मस्य तत्त्वार्थविदो वदन्ति। सत्यं बिना काऽपि पदार्थ सिद्धि स्त्येिवलोके कथयन्ति सन्तः॥२॥ न्यायालयोऽयं यदि तत्र सत्यं हिंसालयोऽसौयदिनास्ति सत्यम्। न्यायाधिकारी यम एव सोऽयं, सत्ये न यस्याभिरुचिस्तदानीम् ॥३॥ व्याकरण के ज्ञाता पुरुषों ने जो सन्तों में साधु होता है, उसको सत्य कहते हैं' ऐसे सत्य की सिद्धि कही है। इससे जो समाज में । सत्य कथन है, उसको हम तब सत्य कहते हैं॥१॥ तत्त्ववेत्ता धर्म की जड़ सत्य कहते हैं। सन्त कहते हैं, कि सत्य के बिना संसार में कोई भी पदार्थ सिद्धि नहीं होती॥२॥ । यह न्यायालय तभी न्यायालय है, जबकि वहाँ सत्य हो। यदि वहाँ सत्य नहीं है तो वह हिंसालय अर्थात् कत्लगाह है। वह न्यायमूर्ति एक यमराज है, जिसकी रुचि सत्य में न हो॥३॥ साक्षात्केवली महापुरुषों में प्रमाण के साथ आगमों में यह सत्य कहा है। तदतिरिक्त कोई सत्य नहीं है, क्योंकि अभी कलियुग घोर समय है, अतः सभी अपनी-अपनी बात को सत्य कहते हैं ॥४॥ ये मुनिजन संसार में सत्य स्वरूप हैं, और ये सभी सम्मानित हैं। भद्र घोर तपस्वी की प्रसिद्धि का मूल सत्य होता है॥५॥ अध्यागम सत्यमिदं समूलं, साक्षात्तदा केवलिभिर्यथोक्तम्। सत्यं जनैर्व्यर्थमुदीर्यतेऽदः, कालः कलेः साम्प्रतमस्ति घोरः॥४॥ सत्यस्वरूपा मुनयः पृथिव्यां, सम्मानिताः सन्ति समेऽप्यथाऽन्ये। भद्रा जना घोर तपस्विनोऽमी, मूलं हि सत्यं बहुशः प्रसिद्धेः॥५॥ 46080 JainedicatositenafaS DOORD E Rplivelespersonal use oilyc00000000 0 00 sow .pinelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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