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________________ तुEOS । वागू देवता का दिव्य रूप ३७५4600 90.00000 गुरुदेव स्मृत्यष्टकम् गुरुदेवस्मृत्यष्टकम् स्मरामि सन्तं सततोपकारिणं, गुरुं मदीयं स्थविरेष्वनन्यम्। अहं प्रभातेऽप्यधुना गुरुं नमन्, चरामि नित्यस्य विधेः क्रियापदम्॥१॥ पुराऽहमासं कृषिकर्म धारिणां, कुलेद्विजानां सुतएव वास्तवः। परन्त्वकस्मान्मम पूतकर्मणो, युवा गुरु मे पुरिदृष्टवानहम्॥२॥ 298D 200-30datoo DOORDIDEO690.0000000 HDDOE290000० वणिगजनैः कैश्वन जैनबन्धुभिस्तदा गुरुं सेवितुमेष योजितः। अतिप्रसन्न पुनरेकदा गुरु, विवाहितस्त्वं किमसीत्यपृच्छत्॥३॥ 2000 अहं विरागो युवकम्म्यतः स्वयं, तदोपयामं शयनेऽपि वाञ्छितम्। भवेयमीशो किमुचिन्तये रहो! निशम्य वाचं स त सस्पृहोऽभवत्।।४।। मैं सतत् उपकारी स्थविरों में अनन्य मेरे गुरुदेव को अब भी अन्य नित्यविधियों के पूर्व में स्मरण करता हूँ॥१॥ पहले मैं खेतिहर ब्राह्मणों के वंश में उत्पन्न हुआ पुत्र था, परन्तु भाग्य से पुण्यकर्म के कारण युवक हुए मैंने मेरे इन गुरुदेव को अपनी नगरी में देखा ॥२॥ तब मुझे कुछ व्यापारी जैनबन्धुओं ने गुरुदेव की सेवा में लगाया। एक बार अत्यन्त प्रसन्न गुरुदेव ने प्रश्न किया कि क्या तुम विवाहित हो ऐसा पूछा ॥३॥ (मैंने कहा कि) मैं उदासीन युवक हूँ, इससे मैं इस बात की ओर स्वप्न में भी नहीं सोचता। मेरी इस बात को सुनकर गुरुदेव सस्पृह हो उठे।॥४॥ तदनन्तर गुरुदेव ने एक मुनि की नित्यविधि को अच्छी तरह से मुझे समझाया। उन्हीं गुरुदेव की कृपा से मैं पीछे यथा विधान Poraso0 दीक्षित हुआ॥५॥ ____ गुरुप्रिय होने से मुझे शिक्षक विद्वानों ने शिक्षित किया जिससे मैं भाषा में पण्डित हुआ, क्रम से फिर मुनि मण्डल में वाग्मी समझा P..903 जाने लगा, यहाँ तक कि मैं उपाध्याय हो गया॥६॥ 200 इस प्रकार मैं मुनि की नित्यविधि को समझा। फिर गुरुदेव के अन्य शिष्यों को मार्ग की दृष्टि को बताते हुए शिष्य प्रधान प्रथम शिष्य हो गया॥७॥ _मैं अपने गुरुदेव के गुणों का ऋणी मानता हूँ जिनका कि शुभनाम श्री ताराचन्द्र जी महाराज था, जिनको मैं क्या कहूँ। जिनको तप की साक्षात् मूर्ति सभी अन्य तपस्वी मुनि कहते हैं॥८॥ पुनर्मुनेर्नित्यविधेरपेक्षितं, क्रियाकलापं सकलं व्यबोधयत्। अनुग्रहेणैव गुरोरहं ततो, यथाविधानं भुवि दीक्षितोऽभवम्॥५॥ गुरुप्रियोऽहं विधिना प्रशिक्षकः, प्रशिक्ष्य शीघ्र गिरि पण्डितः कृतः। क्रमेण वाग्मी निपुणो मुनिर्गणे, तथाऽप्युपाध्यापदे व्यवस्थितः॥६॥ पुनर्मुनेर्नित्यविधिं यथोचितं, क्रियाकलापं सकलं व्यवागम। गुरोर्मुनीन् दृष्टिपथं निबोधयन् प्रधानशिष्येप्रथमोऽभवं ततः।।७।। OROPO ऋणी गुणानामहमस्मि मे गुरोर्मुनेस्तु तारा विधुनाम धारिणः वदाम्यहं किं मुनयस्तपस्विनो, वदन्ति रूपं तपसो जिनस्यतम् ॥८॥ अहिंसाष्टकम् अहिंसाष्टकम् TERRO अहिंसाधर्मोऽयं परम रमणीयोऽवनि तले, पृथिवी पर यह परम रमणीय अहिंसा धर्म है। जिस अहिंसा यतः सर्वे जीवाः सततसखिनो जीवनधरा। धर्म से जीवनधारी जीव सभी सदा सुखी रहते हैं। महान् आनन्दित महान्तः सानन्दा विदधति यथेच्छं गतिविधिं होकर इच्छानुसार अपने कार्य करते हैं और किसी को वे कष्ट नहीं pada न कष्टं ते दधुः कथयतु फलं किं निहनने ॥१॥ । देते। कहिये, इनके मारने में क्या लाभ होता है ?॥१॥ 90009 कपोता अप्येते कथमपि हिंसा विदधति, hissa ये कबूतर भी कभी हिंसा नहीं करते। यहाँ तक कि जिन्दा म्रियेरन् जीवन्तस्तदपि पुनरन्यं व्यथयितुम्। रहते हुए मर भले ही जायें फिर भी दूसरे को दुःखी करने के लिए parasi कदाप्येतेक्षीबा न हि तदपि हिंसां दधति ते, की | भूखे ये कबूतर हिंसा नहीं करते। यदि जीव के साथ अन्न हो तो सजीवं चान्नं चेज् जहति पुनरन्तेऽप्यशरणाः॥२॥ | उसको अशरण ये अन्त में छोड़ देते हैं॥२॥ महन्मेऽस्त्याश्चर्यं हृदि पशुमजं हन्ति पुरुषः । मेरे हृदय में बड़ा आश्चर्य होता है कि मनुष्य बकरा जानवर प्रभोराख्यां स्मृत्वा वदति परमं धर्ममपि तम्। को मारता है और ईश्वर का नाम लेता है, उसको बड़ा धर्म भी अहो! पापं किं स्यात्कथयतु पुनः कोऽपि भगवन्! कहता है। कोई बताये कि फिर पाप किसको कहते हैं ? अरे ओ अहिंसा धर्मं तं जिन मुनिरयं वीर इति सः ॥३॥ | भगवान् महावीर जिनवर! अहिंसा धर्म उसको कहते हैं ।।३।। -1000 10000000000000000000000000000000696580003636PAEO20000000000 SADGGOOGGEVO JanEducaberinternational9000 8092EBOOPadodFor Private ParsdhardseDolyap9030038003005000540vunlainellbirror 1809002049993003aca2006a290329080500000202929
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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