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________________ Ye | वाग् देवता का दिव्य रूप ३७७ । जपपञ्चकम् जपपञ्चकम् D ROIROलय सामान्या ये जनाः सन्तः, साध्यो वा परमाः स्त्रियः। धर्म पूज्यं समाश्रित्य, जीवन्त्येते यथाक्रियम् ॥१॥ सर्वेष्वेतेषु जीवेषु, प्रज्ञातत्त्वं प्रतिष्ठते। अतएव कृताभ्यासाः प्रसिद्धिं यान्ति ते पराम्॥२॥ परन्त्वेतेषु ये नित्यं, जपन्तीष्टं प्रभुं सदा। लभन्ते तेऽपरां सिद्धिं, स्वीयादिष्टाप्रभोस्तदा ॥३॥ तदा सिद्धेः प्रसादात्स, शक्तिं प्राप्नोत्यथाऽद्भुताम्। शक्त्याः शक्तेः प्रभावात्स, उपकारान् करोत्ययम्॥४॥ इच्छापूर्तिं च भक्तानां, कर्तुमर्हत्ययं जपी। तस्माज्जपोऽस्त्यनुष्ठेयः, सद्भिर्लोकहितादयम्॥५॥ सभी साधारण मनुष्य सन्त होते हैं और सब स्त्रियाँ परम साध्वी होती हैं जबकि ये पूज्य धर्म को मानकर क्रियानुरूप जीते हैं।॥१॥ सभी जीवों में बुद्धि तत्त्व होता है। इसीलिए कृताभ्यास अर्थात् निरन्तर के प्रयत्न से वे जीव बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं॥२॥ परन्तु इनमें से जो नित्य इष्ट प्रभु को जपते हैं तो वे अपने इष्ट प्रभु की कृपा से सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं॥३॥ तब सिद्धि प्राप्त कर लेने पर उसमें अद्भुत सामर्थ्य आ जाता है। सामर्थ्य के प्रभाव से यह उपकारों को करता है॥४॥ यही जपी महात्मा अपने भक्तों की इच्छापूर्ति करने के योग्य बन जाता है। इससे जप करने के योग्य है सन्तों के द्वारा क्योंकि लोकहित होता है॥५॥ ब्रह्मचर्य-पञ्चकम् ब्रह्मचर्य-पञ्चकम् विराग के कारण प्रकृति के प्रेम का निरोध ब्रह्मचर्य होता है। गुरुजन के कहने से इस ब्रह्मचर्य को सदा साधते हैं, और पुरुष हो या स्त्री हो विषयभोग को छोड़ देता है, वह जिनवरों के निगम के अनुसार हम सबका वह साधु और साध्वी है।॥१॥ पृथिवी में यह ब्रह्मचर्य बहुत कठिन है तो भी तत्त्ववेत्ता मुनिवरों के और सतियों के द्वारा जिन्होंने विरति के मार्ग में संलग्न रहना ही पसन्द किया है, इस ब्रह्मचर्य को मुनि महावीर स्वामी जैन धर्म की जड़ बताते हैं॥२॥ प्रकृतिरतिनिरोधं ब्रह्मचर्यं विरागात्, गुरुजनवचनाद्यत्साधयत्येव नित्यम्। त्यजति विषयभोगञ्चापि लोकोऽथवा स्त्री, जिनवर निगमान्नः सोऽस्ति साधुश्च साध्वी ॥१॥ परम कठिनमेतद् ब्रह्मचर्यं पृथिव्याम्, तदपि मुनिवरैति सारैः सतीभिः। विरतिगतिरतामिर्धार्यते चाधुनेदम्, ज्ञपयति मुनिवीरो जैन धर्मस्य मूलम् ॥२॥ प्रकृतिनियमसिद्धं मैथुनं कृत्यमेतद्, परमकठिनमस्माद् ब्रह्मचर्य पुरोक्तम्। पुनरपि मुनिराजैः साधितं ब्रह्मचर्यम्, विवसन मुनिरेषोऽप्यस्ति तस्यैव रूपम्॥३॥ अतुलितमतिरूपं ब्रह्मचर्यं वरिष्ठम्, जगति परमतत्त्वं यस्य कीर्तिर्विशाला। मुनिभिरपि महत्त्वं यस्य गीतं त्रिलोक्याम्. व्रतमपि शुभमन्यन्नास्ति यत्स्याद् विशिष्टम्॥४॥ अति जटिल विशेषो निग्रहोऽपीन्द्रियाणाम्, मुनिभिरपि कृतोऽयं तत्त्वविद्भिस्तदा तैः। जगति परम पूज्याः सन्ति तेऽतः प्रणम्याः उपकृत जन जीवान् केन साधून नमेयुः॥५॥ यह मैथुनकर्म प्रकृति के नियम से सिद्ध है, जो ब्रह्मचर्य बहुत कठिन है, जिसको मैंने पहले भी कहा, फिर भी इस ब्रह्मचर्य को मुनिराजों ने साधा है, जिसका ही रूप यह दिगम्बर मुनि है॥३॥ सर्वोत्तम और अनुपम यह ब्रह्मचर्य है। संसार का महान् तत्त्व है, जिसकी मुनियों ने भी त्रिलोकी में महिमा गाई है और जिसकी विशाल कीर्ति है। जिससे बढ़कर दूसरा शुभ व्रत भी दूसरा नहीं हो सकता ॥४॥ तत्त्ववेत्ता मुनियों ने भी इन्द्रियों के निग्रह को अति जटिल विशेष माना है। इससे ब्रह्मचर्यधारी मुनिजन संसार में अधिक पूज्य और प्रणाम करने के योग्य हैं। जो जन-जीवों का उपकार करने वाले हैं, ऐसे साधु-सन्तों को कौन प्रणाम नहीं करेंगे, अर्थात् सभी प्रणाम करेंगे॥५॥ करतात त स्ततात 900CERDODODED Jan Education International For Private Personal use only RRORRORodaee0000000000RDAD
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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