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________________ 000000DD । | वाग् देवता का दिव्य रूपमा ३६९ बन जाता है कि कोई भी बाह्यशक्ति आक्रमण नहीं कर सकती। समग्र सामग्री प्राप्त होने मात्र से अथवा मंत्र के विषय में मंत्र-शब्दों में अपारशक्ति होती है। अतः मंत्र एक प्रतिरोधात्मक जानने-सुनने मात्र से सफलता मिल जाएगी। मंत्र की सफलता के शक्ति भी है। प्राचीनकाल में मंत्रों के द्वारा अपना सन्देश-प्रेषण- लिए सामग्री और विधि के साथ-साथ उसका दीर्घकाल तक सतत् विचार-सम्प्रेषण या समाचार मंगाने का कार्य किया जाता था, अतः नियमित अभ्यास और साधना आवश्यक है। दावे के साथ कहा जा सकता है किसी भी विकट समस्या, विपत्ति, सफल मंत्रसाधक की योग्यता उपसर्ग, संकट या कष्ट का निवारण मंत्रशक्ति से हो सकता है। ___ मंत्र-साधक को मंत्र सिद्ध करने और उससे लाभ उठाने के कल्पना, संकल्प एवं दृढनिश्चय = संकल्प लिए अधैर्य, विषमता, व्याकुलता, उद्विग्नता, फलाकांक्षा, आशंका, शक्ति का चमत्कार विचिकित्सा मूढ़दृष्टि आदि से दूर रहना आवश्यक है। मंत्रशास्त्रों में व्यक्ति जब अपनी कल्पना को संकल्प का रूप दे देता है, तब बताया गया है कि मंत्रविद्या-साधक कैसा हो? "जो सदाचारी हो,00-900 2069 कल्पना दृढ़ निश्चय में बदल जाती है। संकल्प शक्ति के द्वारा कुलीन हो, सज्जन हो, परोपकारी हो, कर्मठ हो, एकाग्रचित्त हो, अमेरिका के नौसैनिक इलैक्ट्रिक स्विच के सम्मुख जाकर खड़े हो स्पष्ट शुद्ध उच्चारण करने में समर्थ हो, एवं जो देशकाल का ज्ञाता गए, स्विच दबाया नहीं, स्वतः ही वह ऑन हो गया, बिजली के } हो, वही मंत्रसाधक अपने कार्य में सफल होता है।" प्रकाश से कमरा जगमगाने लगा। संकल्प शक्ति के द्वारा लोह का मंत्रविद्या के छह तथा दस प्रयोजन भारी-भरकम अलमारी कमरे के एक छोर से दूसरे से दूसरे छोर मंत्र-विद्या-विशारदों ने षट्कर्मों की सिद्धि के लिए मंत्र के ६ तक पहुँच गई। होता यह है कि ज्यों ही मंत्रसाधक व्यक्ति दृढ़ प्रकार बताए हैं-१. शान्ति, २. वश्य, ३. स्तम्भन, ४. उच्चाटन, संकल्प करता है, त्योंही संकल्प बल से समग्र परमाणुओं में प्रकम्पन ५. मारण और ६. विद्वेषण। कतिपय मंत्रविद्या-विशेषज्ञ इन ६ प्रारम्भ हो जाता है, इतना तीव्र प्रकम्पन हो जाता है कि वह संकल्प प्रकार के मंत्रों के अतिरिक्त चार प्रकार के मंत्र चार कर्मों के लिए यथार्थ में परिणत हो जाता है। और बताते हैं-७. आकर्षण, ८. मोहन, ९. जृम्भण और १०. मंत्रशक्ति-जागरण के तीन तत्व : शब्द, संकल्प और अभ्यास पौष्टिका मंत्रशक्ति का मुख्य तत्त्व है-शब्द या ध्वनि। पहले शब्द और प्रश्न होता है, पूर्व पृष्ठों में मंत्र-विद्या के जो उद्देश्य और पदार्थ (अर्थ) में कुछ दूरी होती है। किन्तु शब्द-संयोजनात्मक मंत्र प्रयोजन बताये गए हैं, उनसे तो ये पूर्वोक्त प्रकार के मंत्र काफी के जप के साथ जैसे-जैसे संकल्प शक्ति दृढ़ होती जाती है-शब्द भिन्न उद्देश्य और प्रयोजन रखते हैं। इसका क्या कारण है ? इसके और अर्थ की दूरी कम होती जाती है। कल्पवृक्ष, कामधेनु और समाधान के लिए हमें मंत्रशास्त्र के इतिहास की गहराई में उतरना चिन्तामणि, ये तीनों शक्तियाँ जैसे क्रमशः कल्पना, कामना और पड़ेगा। चिन्तन के शब्द के साथ ही अर्थ को उपस्थित कर देती है, वैसे ही संकल्प शक्ति भी मंत्रजप के साथ ही व्यक्ति ही कल्पना, कामना । मंत्रों के द्वारा भौतिक सिद्धियों की प्रबलता : कब और क्यों? और चिन्तन के शब्द के अनुरूप अर्थ की पूर्ति कर देती है। । यद्यपि ऐहिक सिद्धि के लिए जैनपरम्परा में मंत्रविद्या के प्रयोग अर्थात्-संकल्प शक्ति शब्द और अर्थ की दूरी समाप्त कर देती है। । का निषेध है, प्राचीनकाल में जैन धर्माचार्य को संघ की उन्नति, रक्षा एवं प्रभावना के लिए मंत्र-विद्या का वेत्ता होना आवश्यक मंत्रसाधना की फलदायकता अभ्यास पर निर्भर माना गया था। इस प्रकार के प्रभावक आचार्यों के चरित्र सम्बन्धी निष्कर्ष यह है कि मंत्रसाधना का पहला तत्त्व है-शब्द, दूसरा ग्रन्थों में उनके मंत्रवेत्ता होने का उल्लेख मिलता है। विद्यानुप्रवाद तत्त्व है-संकल्प और तीसरा तत्त्व है अभ्यास। मंत्रसाधक मंत्रगत पूर्व में तथा उत्तरवर्ती सिद्ध प्राभृत, योनिप्राभृत, निमित्तप्राभृत एवं शब्दों का उच्चारण भी करता है, आत्मविश्वास के साथ दृढ़संकल्प विद्याप्राभृत आदि मंत्र-साहित्य में विविध मंत्रों का उल्लेख है। इसके भी उसके मन में है, किन्तु अभ्यास नहीं कर रहा है, मंत्रसाधना में अतिरिक्त 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' का जो परिचय नन्दीसूत्र में मिलता है, अभ्यास का अभाव है तो वह मंत्र फलदायक नहीं बनता। अतः इन उसमें प्रश्न, अप्रश्न और प्रश्नाप्रश्न, विद्यातिशय आदि मंत्रविद्या से दोनों तत्त्वों के साथ अभ्यास सतत् और दीर्घकाल तक अपेक्षित है। सम्बन्धित बातों का उल्लेख है। इसी प्रकार ‘आचारांगसूत्र' प्रथमश्रुत मंत्रसाधक आरोहण करता-करता जब तक मंत्र को प्राणमय-मनोमय स्कन्ध के अष्टम अध्याय में भी विविध मंत्रों का वर्णन था, परन्तु न बना ले, तब तक वह आरोहण के क्रम को न छोड़े। मंत्रसाधना कतिपय आचार्यों ने इनका दुरुपयोग होता देखकर इस अध्याय को में निरन्तर और दीर्घकालिक प्रयत्न जरूरी है। विच्छिन्न और प्रश्नव्याकरण से में उक्त मंत्रविद्या को निकाल दिया। सारी सामग्री होने पर अभ्यास और साधना अनिवार्य अतः इन पिछली शताब्दियों में जीवन का लक्ष्य तपःसंयम मंत्रजपानुष्ठान में सफलता के लिए सारी सामग्री होने पर भी परायण व त्यागपरक न होकर भोगोन्मुखी अधिक होने लगा। इस अभ्यास आवश्यक है। कोई व्यक्ति इस भ्रान्ति में न रहे कि मंत्र की दृष्टि से मंत्रों से किसी रूप में आध्यात्मिक विकास का प्रयोजन 6090000000 पान DJain Education intermalignalon800 प तालमतपEWEDDISODOOT 0 0 8 55EE Private & Personal use onlysobato. 360 DOOROOP www.dainelibrary.org 565DDOORDC
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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