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________________ 8666060646580006.04666लावायलाहर RApps 6000008 06960099993298 ३७० उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । लुप्त होता गया, केवल भौतिक और वह भी प्रायः वासनात्मक बिलकुल स्वाभाविक है। मंत्रशास्त्र में बताए गए पूर्वोक्त ६ या १० प्रयोजन तथा शत्रु के प्रति मारण, मोहन, उच्चाटन आदि मंत्रों के प्रयोजनों ने जनमानस में एक भ्रान्ति फैला दी है कि मंत्र और प्रयोग ने जोर पकड़ा। जैनसंघों पर भी बड़े-बड़े उपसर्ग व संकट के अध्यात्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। पूर्वोक्त भ्रान्ति के शिकार लोग दौर आए। अतः दुर्बल आत्माओं, सांसारिक मोहाच्छन्न जीवों के यही सोचने लगे-मंत्रवेत्ता मंत्रों से मारने, सम्मोहित करने, उच्चाटन लिए एकमात्र आध्यात्मिक उद्देश्य पर टिके रहना, आत्मभावों के करने तथा वश में करने का ही प्रयोग करते हैं। अतः मंत्रविद्या निजी गुणों पर टिके रहना, पर भावों और विभावों से विमुख खराब विद्या है। किन्तु नमस्कारमंत्र आदि जैनमंत्रों के प्रयोगों ने यह रहना, बहुत ही कठिन हो गया। अधिकांश व्यक्ति विपत्ति आते ही सिद्ध कर दिया है कि मंत्र के द्वारा ऐसी सूक्ष्म ध्वनि-तरंगें पैदा की भय या प्रलोभन, स्वार्थ और लोभ का ज्वार आते ही स्वधर्म से- जाने से प्राणों की धारा सुषुम्ना में प्रवाहित होने लगती है, स्व-भाव से विचलित होने लगे। कई लोग त्याग, तप, संयम से । अध्यात्मजागरण प्रारम्भ हो जाता है। दूसरी दृष्टि से देखें तो इन विमुख होकर जहाँ भोग-विलास एवं आडम्बर की प्रचुरता थी, उस मंत्रों से कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, इन्द्रिय विषयों के ओर झुकने लगे। मनुष्यों की ऐसी मनःस्थिति देखकर दीर्घदृष्टि प्रति राग-द्वेष उपशान्त होने लगते हैं। भय, घृणा, कामवासना, जैन-आचार्यों ने नवकारमंत्रकल्प, लोगस्स कल्प, णमोत्थुणं कल्प, तनाव एवं ईर्ष्या विषमता आदि विकार भी शान्त हो जाते हैं। मंत्रों उवसग्गहरस्तोत्रकल्प, तिजयपहुत्तकल्प, भक्तामरकल्प, कल्याणमन्दिर के विधिवत् प्रयोग से सभी समस्याएँ हल हो सकती हैं, सभी कल्प, ऋषिमण्डल स्तोत्र तथा ह्रींकारकल्प, वर्धमानविद्या एवं अनेक स्थितियों से निपटा जा सकता है। प्रकार के लौकिक मंत्रों की भी रचना की। इनका दौर बीच के मंत्रशक्ति की सफलता के चिह्न चैत्यवासी साधुओं और यतियों के युग में खूब चला। उन्होंने मंत्रों के बल पर लोगों को चमत्कृत एवं आकर्षित करना शुरू किया। मंत्रसाधक जब पुनः पुनः एक ही मंत्र का उच्चारण या अज्ञजनों को मंत्रों के नाम से ठगा भी जाने लगा। फलतः मंत्रों की आवर्तन करता है, तब उसे वाच्य और वाचक की अभिन्नता का वास्तविकता और प्रभावशीलता से बुद्धिमान् लोगों की श्रद्धा उठने अनुभव होने लगता है। यही मंत्र-साधना की सफलता का प्रथम लगी। आमजनता मंत्रप्रयोगों को जादू के खेल अथवा देव-देवी को चिह्न है। मंत्र-साधना में सफलता का दूसरा चिह्न है-चित्त की वश में करने की विद्या मानने लगी। यद्यपि मंत्र विद्या, उसका प्रसन्नता, मानसिक निर्मलता। पवित्र मंत्रों के उच्चारण से साधक के प्रभाव एवं शक्तिमत्ता सर्वथा नष्ट नहीं हुई, न आज भी नष्ट है। अन्तःकरण में राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादि का मैल धुलने लगता है। नमस्कार महामंत्र जैसे जैनमंत्रों की सात्विकता और प्रभावशालिता। तीसरा चिह्न है-बिना किसी उपलब्धि के भी चित्त की सन्तुष्टि होना की सत्यता आज भी सिद्ध है, लुप्त नहीं हुई। ऐसे सात्विक मंत्रों के साधक का मन सन्तोष से सराबोर हो जाता है कि उसकी भौतिक गों की श्रद्धा और निष्ठा है। कई शास्त्रीय गाथाएँ। पदार्थों की या परभावों की सारी चाह शान्त हो जाती है। विविध उद्देश्यों को सिद्ध करने वाली मंत्ररूपा है, जिनका विधिवत् । मंत्रों के अधिष्ठायक देवी-देवों द्वारा मंत्रसिद्धि में सहायता प्रयोग करने से वे-वे कार्य सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार पवित्रमंत्रों की साधना से स्मरण, चिन्तन, मनन, मंत्रप्रयोग के सात्त्विक और आध्यात्मिक प्रयोजन भी हैं। विश्लेषण, निर्णय आदि बौद्धिक शक्तियाँ एवं अनुभूति की चेतना - अतः इस भ्रान्ति को मन से निकाल देना चाहिए कि मंत्र प्रयोग ज्ञानचेतना जग जाती है। उसे इन मानसिक उपलब्धियों के के पूर्वोक्त छह या दस ही प्रयोजन हैं। समय-समय पर आचार्यों ने साथ-साथ शारीरिक उपलब्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं। मंत्रसाधक मंत्रों द्वारा अनेक प्रयोजन सिद्ध किये हैं। मंत्र एक शक्ति है, व्यक्ति क्षय, अरुचि, अग्निमान्द्य, कोष्ठबद्धता, दुर्बलता आदि रोगों ऊर्जावृद्धि का साधन है। शक्ति-शक्ति है, उसका अच्छा या बुरा पर नियंत्रण पा लेता है। तन और मन दोनों स्वस्थ और स्फूर्तिमान उपयोग प्रयोग करने वाले पर निर्भर है। शक्ति अपने आप में न हो जाते हैं। व्याधि, आधि और उपाधि मिट कर समाधि प्राप्त हो अच्छी है, न बुरी। मंत्रों द्वारा कैंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ भी जाती है या समाधि की दिशा में गति-प्रगति होने लगती है। नष्ट होती हैं। कुछ वर्षों पूर्व मंत्रों द्वारा विभिन्न रोगों की चिकित्सा । देवाधिष्ठित मंत्र की आराधना से शरीर भी प्रभावित होता है। का उपक्रम नागपुर में तथा कई अन्य स्थानों पर, विभिन्न साधकों। इसके अतिरिक्त जिस मंत्र के जो भी अधिष्ठायक देवी-देव द्वारा चलाया गया था। मंत्र की सक्ष्म ध्वनि अर्थात ध्वनि-तरंगों होते हैं, वे भी सहायता देते हैं। सात्विक मंत्राराधना से मंत्र के द्वारा औजारों के बिना ऑपरेशन क्रियां भी सम्पन्न की जाने लगी। अधिष्ठाता दिव्य आत्मा की सहायता कभी प्रत्यक्ष और कभी परोक्ष है। सूक्ष्म ध्वनिप्रयोग से हीरा भी काटा जाता है, पारे में पानी । रूप से मिल जाती है। दशवैकालिकक सूत्र में कहा गया हैमिलाया जाता है तथा वस्त्रों की धुलाई तक होती है और तो और } "देवावितं नमसंति, जस्स धम्मे सयामणो।" -जिसका मन सदैव धर्म वनस्पतिजगत् में मंत्रित जल का प्रयोग होने लगा है, जिससे । (उपलक्षण से धर्मदेव एवं धर्मगुरु) में रत रहता है, उसे देवता रासायनिक खाद देने की अपेक्षा दुगुनी फसल तथा फल भी दुगुने । आदि भी नमस्कार करते हैं। देवाधिष्ठित मंत्र की आराधना से प्रमाण में प्राप्त हुए हैं। मंत्रों के द्वारा आध्यात्मिक जागरण होना तो शरीर में रोमाञ्च होने लगता है; आँखों में हर्षाश्रु उमड़ पड़ते हैं, RSS D D 2006 20 290-10000000000026.86.6936.20. 50 JariEducation latematiotiale0 %a6i004020902090Forbrivates Persanal use only and RA200PAL-ROSCHED306 www.jainelibrary.org 300 0 306565 Bi60605086.00
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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