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________________ | वागू देवता का दिव्य रूप ३३५ । ही मिलता है। साथ ही, मुझे अपने परिवार से भी संतोष है। चिन्तन, विकल्प या कल्पना बिल्कुल न कर सके। किन्तु यह कोरी परिवार में सब मुझे चाहते हैं। सभी मेरे आदेश और सन्देश पर । कल्पना है। मन को निर्विकल्प या निर्विचार बनाना जैन सिद्धान्त के चलते हैं। जिस काम को मैं चाहता हूँ, वे मेरे कहे बिना ही उस अनुसार तेरहवें गुणस्थान तक सम्भव नहीं है। क्योंकि तेरहवें काम में जुट जाते हैं। मेरे नौकर चाकर भी बहुत कर्मठ और गुणस्थान तक योग (मन, वचन, काय की प्रवृत्ति) है। मगर मोह विनीत हैं, आज्ञाकारी हैं। बाहर की मुझे कोई भी परेशानी नहीं है। का नाश हो जाने से वहाँ विकल्प (राग-द्वेष-युक्त विचार) नहीं है। परेशानी है तो सिर्फ मन की है। मेरा मन बहुत ही नाजुक, चंचल । यहाँ वीतराग अवस्था है। चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान में और कमजोर हो गया है। वह दिन में दस बीस बार बदल जाता है। जाकर मन की अयोग-अवस्था-निष्कंप-दशा आती है। इसलिए मन सुबह वह एक बात सोचता है, दोपहर में ठीक उससे विपरीत | को विकल्प या विचार से शन्य दूसरी बात सोचने लगता है, और शाम को उससे भी विपरीत छद्मस्थ दशा में सामान्य मानव का मन एक क्षण के लिए भी शून्य तीसरी बात की कल्पना करने लगता है। मैं सुबह अहिंसक बनने नहीं होता। मन सदा क्रियाशील रहता है। जागृत, स्वप्न एवं सुषुप्ति और शांत रहने की बात सोचता हूँ, किन्तु ज्यों ही दूसरा वातावरण अवस्था में भी मन सर्वथा स्थिर नहीं रहता। यहाँ तक कि जागृत | या निमित्त मिलता है, मेरा मन उत्तेजित हो जाता है, मैं रोष और और निद्रा अवस्था में भी मन में शून्यता नाम की कोई वस्तु नजर आवेश में आ जाता हूँ, मन में मैं सोचता हूँ, ऐसा नहीं करना है, नहीं आती। अगर मन को शून्य बना दिया जाएगा तो वह जड़ता किन्तु समझ आने पर ठीक वैसा ही करने पर उतारू हो जाता हूँ।। का प्रतिनिधि हो जाएगा। इसलिए जैन, बौद्ध, वैदिक आदि कोई भी प्रतिदिन सैकड़ों घटनाएँ घटित होती हैं। मन एक बार ठीक सोचता । आस्तिक दर्शन मन को शून्य नहीं मानता। हाँ, मन को जैनदर्शन ने है, परन्तु समय आने पर करता इसके विपरीत है। जो विचार “अवक्तव्य" कहा है। अन्य भारतीय दर्शनों की परम्परा करता हूँ, वह कर ही नहीं पाता। इसी कारण मैं दिन रात परेशान “अनिर्वचनीय" अवश्य मानती है। शून्य का अर्थ भी बौद्धदर्शन ने रहता हूँ। ऐसा मालूम होता है मन के अगणित पर्याय हैं और वह । “अनिर्वचनीय" माना है, वह सत् है, किन्तु है अवक्तव्य। अतः व्यक्ति को अनेक उतार चढ़ावों में ले जाता है।" मन शून्य नहीं होता, छद्मस्थ दशा में मन संकल्प-विकल्प करता ही वस्तुतः देखा जाए तो प्रत्येक अल्पज्ञ व्यक्ति के मन में प्रतिदिन रहता है। हजारों अवस्थाएँ बदलती हैं। एक घण्टे के ६० मिनट में भी प्रायः शताधिक घटनाएं बन जाती हैं। बाह्य जगत् में भी शायद उतनी सामायिक प्रतिक्रमण में भी तो विकल्प करते हैं घटनाएँ घटित नहीं होती होंगी, मानस जगत् में उनसे कई गुना और तो और, आप सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धर्मक्रियाएँ अधिक घटनाएँ घटित होती हैं। जब व्यक्ति किसी कार्य को करने करते हैं, तब आप सावध योगों का त्याग करते हैं, परन्तु निरवद्य लगता है, तो उस कार्य के प्रारम्भ और समाप्ति के बीच के समय योग (प्रवृत्तियों) में तो प्रवृत्त होते ही हैं। वह भी एक प्रकार का में भी पचासों अन्य घटनाएँ, कल्पनाएँ घटित हो जाती हैं। इसीलिए शुभ विकल्प है। अतः हमारा मन छद्मस्थ अवस्था तक सर्वथा आचारांग में कहा गया है-कि “अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे"१ } निर्विकल्प या निर्विचार अथवा शून्य नहीं होता है। यह पुरुष (जीव) अनेकचित्त (मन) वाला है। मन का राज्य शुभ और अशुभ दोनों विकल्प चलते रहते हैं भौगोलिक राज्य से कई गुना बड़ा है। सभी यानों की अपेक्षा मनोयान द्रुतगामी है। मन का शस्त्र अन्य सब शस्त्रों से तीक्ष्ण है।। सामान्य व्यक्ति के मन में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के वह मारक भी उतना ही है, किन्तु तारक भी है, परन्तु मारक के । विचार आते हैं। शुभ विचार पुण्य का विकल्प है और अशुभ जितना तारक नहीं है। यह तो सर्वविदित है कि शोक, क्रोध, मोह, । विचार पाप का विकल्प है। उदाहरण के तौर पर एक आदमी एक ईर्ष्या, व्यामोह, व्यर्थ की महत्वाकांक्षा, चिन्ता, भीति, निराशा, संकड़ी गली में से जा रहा था। रास्ते में सोने की चैन पड़ी हुई तनाव आदि मानसिक विक्षोभ निषेधात्मक चिन्तन हैं, जिनसे जीवन । देखकर उसके मन में विचार आया-यहाँ कोई नहीं देख रहा है, की सरसता और आनन्द नष्ट हो जाते हैं, और पद-पद पर जलने । अतः यह सोने की चैन मैं ले लूँ। यह है पाप का विकल्प। एक घुटने, झुलसने, रोने, झींकने की आदत पड़ जाती है। सवाल यह है । दूसरा व्यक्ति जिस रास्ते से जा रहा है, उसी रास्ते में एक महिला कि ऐसी स्थिति में मन पर नियंत्रण कैसे किया जाए? के गले से सोने की चैन छीन कर ले जाते हुए एक गुण्डे को उसने देखा। तुरन्त उसे महिला को लुटने से बचाने का मन में विचार मन को विकल्प एवं विचार से शून्य बना देना छद्मस्थ आया। उसने सोने का चैन गुण्डे के हाथ से झपट कर उस महिला भूमिका में असम्भव को दे दिया। यह पुण्य का विकल्प है। इस प्रकार मन में पाप और इसीलिए कई लोग मन की चंचलता को समाप्त करने के लिए पुण्य दोनों विकल्प आते हैं। पुण्य का विकल्प आना तो शुभ है, कहते रहते हैं कि मन को शून्य बना दो, ताकि यह कोई विचार, लेकिन है वह विकल्प ही। जब तक दोनों विकल्प रहेंगे, तब पूर्ण १. आचारांगसूत्र पृ. १. अ. ३,३०२ निर्विकल्प दशा नहीं आएगी। वीतराग बनने पर ही पूर्ण निर्विकल्प DEEP sain Education Interational For Private & Personal use only 2000 Ruranelociary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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