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________________ ३३४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 26-012 व्यर्थ ही ऊटपटांग विचारों में उलझाते रहते हैं। उनके मन में चिन्तम-मनन करता है। स्मृति के साथ जुड़ी हुई एक बात और है, 5905DO आशंका, भय, ईर्ष्या, निराशा, अविश्वास, हानि, चिन्ता का चक्र जिसे मन किया करता है, वह है संज्ञा, जिसका दूसरा नाम चलता रहता है। अथवा कई लोगों का मन लॉटरी, जूआ, तस्करी प्रत्यभिज्ञा है, पहचान है। स्मृति में वस्तु या व्यक्ति प्रायः प्रत्यक्ष नहीं आदि द्वारा अथवा चोरबाजारी, जमा-खोरी, चोरी-डकैती, हत्या होता, जबकि प्रत्यभिज्ञा में वह व्यक्ति या पदार्थ प्रत्यक्ष ही होता है। करने, किसी का धन हड़पने, ठगी करने, करचोरी करके सम्पत्ति स्मृति का आकार है-"वह" और प्रत्यभिज्ञा (पहचाना) का आकार कमाने व बचाने आदि आदि रौद्रध्यान के तिकड़म में लगा रहता होता है-"यह वही है।" प्रत्यभिज्ञा में स्मरण और पहचान दोनों है। कभी-कभी यह प्रवृत्ति आक्रामक रूप धारण कर लेती है। होते हैं। मन का चौथा विकल्प है-चिन्ता। इसका अर्थ है-तर्क और फलतः मन में बलात्कार, अपहरण, आक्रमण, अपराध, षड्यंत्र युक्तिपूर्ण चिन्तन करना, अनुमान, ऊहापोह या व्याप्ति का विचार जैसे दूसरों को हानि पहुँचाने के विचार उठते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति करना। इस प्रकार ये चार विकल्प मन के कार्य हैं! एक प्रकार से मानसिक रोगी होते हैं। कल्पनाओं के अनेक रूप भी विकल्प हैं मनोनिग्रह करने के लिए पहले उसका स्वरूप ___हम देखते हैं कि मन बहुत लम्बी चौड़ी कल्पनाएँ करता रहता 2909OSD समझना जरूरी है। स्वप्न में भी और जागृत रहते भी। स्वप्न में वह ऐसी-ऐसी मन को जीतने या उसे वश में करने के लिए उसका स्वरूप कल्पनाएँ करता रहता है, जिनकी परस्पर कोई संगति नहीं होती। समझना आवश्यक है, क्योंकि हमारी प्रत्येक साधना का मूल वे कल्पनाएँ स्वाभाविक भी होती हैं, अस्वाभाविक भी। कल्पनाओं आधार मन है, कई लोग कहते हैं-मन किसी को प्रत्यक्ष ता दिखाईपर से इच्छाओं और आन्तरिक अभिलाषाओं का पता लग जाता नहीं देता, उसे पकड़े बिना कैसे वश में किया जा सकता है? परन्तु है। कल्पनाएँ भी एक प्रकार के विकल्प है। जैसे बिजली प्रत्यक्ष दिखाई न देने पर भी प्रकाश, पंखा, हीटर, _कल्पना का दूसरा रूप है-विकल्प। मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ। कूलर आदि कार्यों द्वारा उसका मानस प्रत्यक्ष होता है, उसका अस्तित्व मालूम होता है। उसी प्रकार मन के कार्यों पर से मन का । यह अनुकूल है, यह प्रतिकूल है, यह प्रिय और इष्ट है, यह अप्रिय और अनिष्ट है। इत्यादि नाना कल्पनाओं का जाल भी विकल्प है। मानस प्रत्यक्ष होता है, उसके अस्तित्व का बोध भी होता है। कल्पना के साथ ही सुख-दुःख की तीव्रता-मन्दता का विकल्प पैदा अतः मन क्या है ? इसे समझने के लिए हमें उसके कार्यों को होता है। विविध वस्तुऔं के आकार एवं स्वभाव के अनुरूप नामों समझ लेना अनिवार्य है। तर्कशास्त्रियों ने मन का लक्षण किया है- की कल्पना भी विकल्प है। “संकल्प-विकल्पात्मकं मनः" जो संकल्प-विकल्पात्मक हो, वह मन कल्पना का तृतीय तत्त्व है-विचार, चिन्तन-मनन। आदमी है।" सतत् किसी न किसी विचार में विचरण करता रहता है। वह किसी मन के विकल्पात्मक कार्य एक विषय पर प्रायः चिन्तन नहीं करता, एक विषय से दूसरे में, आभिनिबोधिक ज्ञान या मतिज्ञान इन्द्रियों या मन के द्वारा दूसरे से तीसरे और चौथे विषय में बन्दर की तरह उछलता रहता होता है। इसमें मानसज्ञान के चार विकल्प बताये गये हैं-१. मति, है। यही मन की चंचलता है। २, स्मृति, ३. संज्ञा और ४. चिन्ता। मति का अर्थ है-मनन करना, मन की चंचलता का विश्लेषण विचार करना। स्मृति का अर्थ है-याद करना, देखी, सुनी, जानी, मन की चंचलता का वर्णन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने सूंघी, स्पर्श की हुई या चखी हुई किसी वस्तु का स्मरण होना। कहा-जिस प्रकार बन्दर वृक्ष की एक डाली से दूसरी डाली पर उसका न्यायशास्त्रीय अर्थ है-“संस्कार-प्रबोधप्रभवा स्मृतिः।" संस्कार | उछलता रहता है, उसी तरह मन उछलता है। किन्तु यदि उस बन्दर के जागृत होने से उत्पन्न होने वाला ज्ञान स्मृति है। इन्द्रियां को कोई मदिरा पिला दे तो वह किलकारियां करता हुआ और भी अपने-अपने नियत विषय को प्रत्यक्ष और तत्काल देखती हैं, वे | ज्यादा कूद-फांद मचाता है। फिर उस पागल से बने हुए बन्दर को बाद में न तो अपने नियत विषय का ही स्मरण कर सकती हैं, न । कोई बिच्छू डंक लगा दे तो उसकी चंचलता का कहना ही क्या? ही अनियत विषय का, किन्तु मन भूतकाल के सभी विषयों का । फिर तो वह स्थिर भी नहीं रह सकता और चीखता-चिल्लाता ही ग्रहण स्मृतिरूप में कर लेता है, वर्तमान में भी वह मनन, रहता है। यही दशा मन की चंचलता की है। चिन्तन-कल्पना आदि कर सकता है और भविष्य के विषय में भी वह कल्पना, अनुमान, तर्क कर लेता है। मन त्रैकालिक और सभी "मेरा मन काबू में नहीं, इसलिए बेचैनी है" विषयों को संकलित रूप से ग्रहण कर लेता है। आचार्य हेमचन्द ने एक व्यक्ति से पूछा गया कि “मन की चंचलता या "प्रमाण-मीमांसा" में मन का लक्षण किया है-"सर्वार्थ ग्रहणं मनः" कल्पनाशीलता से आपको क्या परेशानी है ? उसे अपना काम करने जो समस्त विषयों (अर्थों) को, सर्वकाल में ग्रहण करता है वह मन दो, आप अपना काम करो।" उसने कहा-“मैं बहुत सम्पन्न हूँ। है। वह अतीत की स्मृति, भविष्य की कल्पना और वर्तमान का समस्त सुखसुविधाएँ मुझे प्राप्त हैं। जितना चाहता हूँ, उससे अधिक 09054 dain Education Intemational al e For Private & Personal Use Only www tainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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