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________________ ३२२ अब लाचार होकर सेठ धनदत्त नगरसेठ कुबेरदत्त के पास गये और कहा कि आप जो चाहें करें, चतुरसेन हार की चोरी स्वीकार नहीं करता। कुबेरदत्त ने सागरचन्द्र से कहा कि आप अपने बेटे का विवाह विना नीलखाहार के ही कर लें। अब नगरसेठ कुबेरदत्त राजसभा गये और चतुरसेन का अप्रमाणित अपराध राजा के सामने रखा। अवन्ती नरेश श्रीचन्द ने चतुरसेन को बहुत डराया धमकाया, पर उसने हार लेने की बात स्वीकार ही नहीं की। अब राजा ने क्रुद्ध होकर कहा " इस धूर्त को भयंकरा देवी के मन्दिर में बन्द कर दो। देवी द्वारा मौत ही इसका दण्ड है।" अपने लिए दण्ड की घोषणा सुनकर भी चतुरसेन डरा नहीं । मुस्कराता रहा। तब आपस में लोगों ने काना-फूसी की है तो सच्चा सच्चा है, इसीलिए डर नहीं है कुछ बोले- लेकिन नगर सेठ भी तो धार्मिक और परोपकारी हैं। वे भी मिथ्या आरोप नहीं लगायेंगे। सबकी अन्तिम टिप्पणी यही रही कि कल पता चल जाएगा, कौन सच्चा है, कौन झूठा संध्या हुई। राजा के सिपाही चतुरसेन को देवी के मन्दिर में बन्द करने ले गए। नगरी के सैंकड़ों आदमी साथ थे। चतुरसेन के पिता धनदत्त, नगरसेठ कुबरेदत्त आदि भी थे। भयंकरा देवी का मन्दिर क्षिप्रा नदी के किनारे जंगल में अवन्ती से बाहर था । इस देवी की प्रतिमा इतनी भयंकर थी कि दिन में देखते ही प्राण निकलते थे इसीलिए इसका नाम भयंकरा था । चतुरसेन को इसी के आयतन में बन्द कर दिया गया और बाहर से कपाट बन्द कर दिये गए। रात के सन्नाटे में चतुरसेन ने देवी को देखा तो उसकी प्रतिमा पर प्रहार करना शुरू कर दिया और कहता गया- तू मुझे मारेगी तो मैं भी तेरी प्रतिमा को नष्ट-भ्रष्ट करके छोडूंगा। प्रहार परिणाम से देवी प्रकट हो गई और बोली "अरे श्रेष्ठिपुत्र में किसी के प्राण नहीं लेती। चोर भीतर से बहुत दुर्बल होता है, सो मेरी प्रतिमा देखकर ही प्राण छोड़ देता है। मेरा अस्तित्व बना रहने दे तेरा बाल भी बाँका नहीं होगा।" सचमुच ही चतुरसेन का बाल भी बाँका नहीं हुआ । सबेरे जब किवाड़ खोले गये तो चतुरसेन हँसता-मुस्कराता बाहर निकला। उसके मित्रों ने उसे गोद में उठा लिया और जोर-जोर से चिल्लाने लगे सच्चे का बोलवाला, झूठे का मुंह काला चतुरसेन सच्चा माना गया। नगर सेठ कुबेरदत्त की आवस मिट्टी में मिल गई। सबने यही कहा कि नगरसेठ बेईमान है। चतुरसेन पर झूठा आरोप लगाया है। नगरसेठ को नीलखाहार जाने की चिन्ता नहीं थी। चिन्ता थी धर्म की अवमानना होने की। जैनधर्मी श्रावक को मिथ्यावादी माना Jain Education International उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ जा रहा था। जैन शासन को बट्टा लग रहा था। अतः सेठ कुबेरदत्त तेला तप करने बैठ गये। नवकार मन्त्र की शरण ली। यथासमय चक्रेश्वरी देवी प्रकट हुई और उसने कहा " वत्स ! चिन्ता मत करो। पापी पहले हँसता है, पर बाद में उसे पछता-पछताकर रोना पड़ता है। चतुरसेन के पाप का घड़ा अवश्य छूटेगा। धर्म की ध्वजा फहरायेगी।" "लेकिन कैसे ?” कुबेरदत्त ने व्यग्र होकर कहा- "भयंकरा देवी के मन्दिर से आज तक कोई चोर जीवित नहीं निकला। चतुरसेन सच्चा और मैं झूठा समझा जा रहा हूँ। कुछ उपाय बताओ मातेश्वरी!" चक्रेश्वरी देवी बोली "राजा से कहकर पूनम की रात को अग्नि परीक्षा की व्यवस्था कराओ। बाकी मैं सम्हाल लूँगी।" इतना आदेश देकर शासनदेवी चक्रेश्वरी अन्तर्धान हो गई। उसी दिन रात को चक्रेश्वरी देवी ने अवन्ती के राजा श्रीचन्द से सपने में कहा कि पूनम की रात चतुरसेन की अग्नि परीक्षा लो सबेरे जब नगरसेठ कुबेरदत्त ने राजा से अग्नि परीक्षा की बाता कही तो राजा ने आश्चर्य से कहा "जो बात तुम कह रहे हो, वही बात देवी ने मुझसे भी सपने में कही है। अब तो दूध का दूध, पानी का पानी अवश्य होगा।" राजा ने अवन्तीनगरी में घोषणा करा दी कि पूर्णिमा को क्षिप्रा तट पर चतुरसेन की अग्नि परीक्षा होगी। यह घोषणा चतुरसेन ने भी सुनी तो उसने अपने नाम को सार्थक करने का निश्चय किया और सीधा कुम्हार के घर गया। कुम्हार को एक स्वर्णमुद्रा देकर कहा कि मेरे लिए छोटा-सा और छोटे ही मुँह का एक घट बना दो। कुम्हार ने बना दिया। घड़ा लेकर चतुरसेन घर आया और उसमें सेठ का नौलखाहार रख दिया तथा ऊपर से आटा भर दिया। फिर कुम्हार से कहा कि मैं तुम्हें एक अशर्फी और दूँगा। अग्नि परीक्षा वाले दिन तुम भी आना और इस घड़े को साधे रहना। इसमें जो आटा है, उसे मैं चींटियों को चुगाऊँगा । कुम्हार का ध्यान तो मिलने वाली स्वर्णमुद्रा की ओर था, अतः उसने चतुरसेन की बात पर ध्यान नहीं दौड़ाया और उसकी बात सहज में ही स्वीकार करली | पूर्णिमा के दिन क्षिप्रा तट पर बड़ी भारी भीड़ जुड़ी एक अग्निकुण्ड नें लोहे का ठोस गोला दहक रहा था। राजा प्रजा सब चतुरसेन की सच्चाई देखने खड़े थे। चतुरसेन का वह घट जिसमें सेठ का नीलखाहार था, उसे कुम्हार लिये खड़ा था। सबके सामने दहकता गोला बाहर निकाला गया। चतुरसेन ने जोर से कहा For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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