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________________ वाग देवता का दिव्य रूप आत्म-कल्याण का पथिक बना। महेश्वर ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये। सभी ने कठोर तप और साधना द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति की । -पार्श्वनाथ चरित्र (जैन कथाएँ: भाग १२, पृष्ठ १३५-१४८) 3 पाप का घड़ा अवन्ती नगरी के नगरसेठ कुबेरदत्त सभी के काम आते थे। अपार सम्पत्ति के स्वामी नगरसेठ कुबेरदत्त ने एक बार नई सेना की भरती के लिए राजा श्रीचन्द को पन्द्रह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ दी थीं। किसानों को बीज की जरूरत हो, बैल खरीदने हों-नगरसेठ के यहाँ से भरपूर धन मिलता था। किसी व्यापारी को पूँजी की जरूरत हो, वह भी नगरसेठ से मिलती थी। गरीब कन्याओं का ब्याह तो वे पूरा अपने धन से ही कराते थे। इस तरह वे राजा प्रजा, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब सभी के काम आते थे। व्याह-शादी की सहयोग श्रृंखला में उनका नीलखाहार अवन्ती का हार माना जाता था। इस हार ने जाने कितने वरों के कंठ की शोभा बढ़ाई थी। नगरसेठ कुबेरदत्त ने नौ लाख स्वर्णमुद्राओं की कीमत का एक अद्वितीय हार बनवाया था। इसमें सिंहलद्वीप के रत्न जड़े थे। बीस वर्ष पहले यह नौ लाख का था । आज पचास लाख से कम का न था; फिर भी नौलखाहार के नाम से जाना जाता था । अवन्ती का दूल्हा जब ब्याह करने दूसरे नगर को जाता, तब नगरसेठ का नौलखाहार पहनकर जाता। इससे अवन्ती की शान बढ़ती । कन्या पक्ष वालों की निगाहें इसी हार पर टिकी रहतीं। इस हार के विषय में एक किंवदन्ती यह भी थी कि जो वर इस हार को पहनकर व्याह करता है, उसकी वधू सुशील और पतिव्रता होती है। इसीलिए बड़े-बड़े धन्ना सेठ नगरसेठ से वक्त पड़ने पर उनका हार माँग लेते। अवन्ती में धनदत्त नाम के एक धनी सेठ रहते थे। उनके पुत्र चतुरसेन का विवाह था । वरात पच्चीस योजन दूर कंचनपुर नगर जानी थी। आषाढ़ के महीने में ब्याह होना था। धनदत्त सेठ नगरसेठ कुवेरदत्त से उनका नौलखाहार माँग लाये और वर-वेशी चतुरसेन की शान में चार चाँद लग गए। ब्याह से लौटने के बाद चतुरसेन ने पन्द्रह-बीस दिन नौलखा हार पहना। हार पहनते पहनते उसकी नीयत बिगड़ गई। उसने एक सुनार से हूबहू वैसा ही नकली हार बनवाया, जो कुल तीन हजार में बनकर तैयार हो गया। नकली चीज में असली से कुछ ज्यादा चमक-दमक होती है। अन्तर बस यही है कि नकली की Jain Education International ३२१ चमक-दमक थोड़े दिन के लिए होती है और असली की टिकाऊ, सो इस हार के नकली रत्न भी असली जैसे ही चमकते-दमकते थे, बनावट भी असली जैसी ही थी। चतुरसेन ने असली हार अपने पास रख लिया और नकली सेठ कुबेरदत्त को दे आया। हार प्राप्ति की रसीद भी ले ली। कुबेरदत्त ने सरल भाव से उसे रख लिया और चतुरसेन ने अपने आप ही अपनी पीठ ठोक ली। इस रहस्य का पता धनदत्त को नहीं चला। आषाढ़ का महीना तो बीत ही चला था। सावन भादों, क्वार भी बीत गया। जाड़ों में सेठ सागरचन्द्र के पुत्र धनसार का विवाह आया। वे भी कुबेरदत्त से उनका हार माँगने गये। सेठजी ने जब हार देखा तो दंग रह गए, क्योंकि हार काला पड़ गया था। सेठ कुबेरदत्त को यह समझते देर न लगी कि धनदत्त के पुत्र चतुरसेन ने धोखा किया है। क्योंकि उसके विवाह के बाद मैं पहली बार ही सागरचन्द्र को हार दे रहा हूँ। कुबेरदत्त ने धनदत्त को अपने पास बुलवाया और एकान्त में उनसे कहा “ सेठजी ! आपके पुत्र चतुरसेन ने यह चतुराई की है। नकली हार मुझे दे दिया है और असली उसके पास है। मुझे राजदरबार न जाना पड़े, इसलिए आप अपने बेटे को समझा-बुझाकर मेरा नीलखाहार मुझे दिलवा दीजिए। वह तो सभी के काम आता है।" धनदत्त बोले- " मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ। यह सब उसी की मक्कारी है। मैं उससे हार अभी दिलवाता हूँ। आप बात हम दो के बीच ही रखें।" धनदत्त अपने पुत्र के पास गया और बिना किसी भूमिका के सारी बात कह दी। हार का आरोप सुनते ही चतुरसेन अपने पिता पर बिगड़ पड़ा "आप मुझे चोर समझते हैं? मेरे पास रसीद है। मेरे पास कोई हार नहीं है।" धनदत्त ने फिर समझाया “परिणाम सोच ले चतुरसेन ! भयंकरा देवी चोरों के प्राण ले लेती है, इसे याद रखना बहुतेरे हेकड़ चोरों ने अपनी चोरी स्वीकार नहीं की, तब उन्हें रात को भयंकरा देवी के मन्दिर में बन्द किया गया और सबेरे उनका शव ही मिला। राजा श्रीचन्द चोरों को क्षमा नहीं करते।" चतुरसेन ने दृढ़ता से कहा "जब मैंने हार दबाया ही नहीं है तो न तो मुझे राजा का डर है और न भयंकरा देवी का जो सच्चा है, वह किसी से नहीं डरता।" For Private & Personal Use Only 0000 www.jainelibrary.om
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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