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________________ वाग देवता का दिव्य रूप “शासन देवता और दिग्पालो! अगर मेरे पास सेठ कुबेरदत्त का नौलखाहार हो तो मुझे यह गोला जला दे।" यह कह चतुरसेन ने लाल-लाल दहकता गोला हाथ में लिया तो सब दंग रह गये। वह उसे ऐसे लिये रहा, जैसे कोई गेंद को पकड़ता है। हार कुम्हार के कब्जे में था, इसीलिए चतुरसेन नहीं जला । अब तो चतुरसेन की जय-जयकार होने लगी। जब जय-जयकार का शोर शान्त हुआ तो कुम्हार के हाथ से घड़ा ऐसे गिरा, जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने गिराया हो। गिरते ही घड़ा फूटा पाप का घड़ा। सेठ कुबेरदत्त का नौलखाहार चमकने लगा। सभी उस हार को पहचानते थे। उसकी किरणें अँधेरे में उजाला कर रही थीं। "मेरा हार कुम्हार के पास कैसे ?' यह कहकर नगरसेठ हार लेने लपके। राजा के सैनिकों ने कुम्हार को पकड़ लिया। डर के कारण उसने वहीं सब बातें बता दीं। अब चतुरसेन कैसे बचता । उसने अपना अपराध स्वीकार किया। अब तो सभी एक स्वर से चिल्लाये पाप का घड़ा अवश्य फूटता है। (जैन कथाएँ भाग ७०, पृ. १३१-१३२) ४ अन्धे परीक्षक (मानव चरित्र के परीक्षक अन्तर्थक्षुः ) "तुम चारों का नाम क्या है ?" राजा के वाणिज्य मन्त्री ने पूछा। पहले ने बताया "मेरा नाम नयनरंजन है ?" "खूब ! बहुत खूब! नाम भी सोच-समझ रखा है, तुम्हारे माता-पिता ने आँखों के गोलक तक गायब हैं और नाम नयनरंजन।" वाणिज्य मन्त्री ने ठहाका लगाकर कहा और दूसरे अन्धे से पूछा "तुम्हारा क्या नाम है, नयनरंजन के भाई ?" "मेरा नाम सुदर्शन है और मुझसे छोटे तीसरे का है सुलोचन।” आस-पास खड़े राजसेवकों ने भी ठहाका लगाया और हँसते-हँसते चीधे अन्धे से पूछा "अब तुम भी बता दो अपना नाम ।" Jain Education International "मुझे अन्तारमण कहते हैं श्रीमान् !” वाणिज्य मन्त्री ने चारों को सम्बोधित करते हुए कहा "तुम चारों के चारों धन्य हो । छाँट-छाँटकर नाम रखे गये हैं। तुम्हारे। ठीक भी है, भाग्य ने आँखें नहीं दीं। तुम्हें अन्धा बनना पड़ा। पर नाम रखना तो भाग्य के हाथ की बात नहीं थी, सो तुमने नाम छाँट-छाँटकर खूब रखे।" वाणिज्य मन्त्री ने पुनः कहा "सूरदासो ! हमारे राजा के अनाथालय में बहुत-से लँगड़े-लूले और अपाहिज रहते हैं। अन्धों का भी एक अलग वर्ग है। तुम बड़े मजे से राजकीय अनाथालय में रहो और अपना शेष जीवन काटो । लेकिन अपने बेचने का मजाक छोड़ो। हम करेंगे क्या तुम्हें खरीदकर ? तुम्हें खरीदेगा भी कौन ?” ३२३ वाणिज्य मन्त्री की पूरी टिप्पणी सुनने के बाद सबसे बड़े भाई नेत्रहीन नयनरंजन ने कहा "मन्त्रिवर! हम अनाथ होते तो सीधे आपके अनाथालय में आते। हमारे माता-पिता है। हम चारों अन्धे भाई सनाथ हैं अपने माता-पिता की निर्धनता दूर करने के लिए हम अपने को बेचना चाहते हैं। हम चारों का मूल्य हमारे माता-पिता को दे दो और हमें खरीद लो।" "कितना मूल्य चाहिए तुम्हें अपनी बिक्री का ?" "चारों के बदले चार लाख स्वर्ण मुद्राएँ।" "चार लाख !" आश्चर्य के साथ सबके मुँह फटे रह गये। वाणिज्य मन्त्री ने कुछ रोष के साथ पूछा “सूरदासो ! तुम हमारे राजा की घोषणा का अनुचित लाभ उठाना चाहते हो। वस्तुतः तो तुम्हारी कीमत चार कौड़ी भी नहीं है। खाने-पहनने की कमी है तो तुम अपने माता-पिता सहित हमारे अनाथालय में रह सकते हो।" वाणिज्य मन्त्री की इस टिप्पणी पर दूसरे अन्धे सुदर्शन ने कहा "श्रीमन! आपके राजा की यह घोषणा है कि उनकी 'विदेश-हाट' में शाम तक जो माल नहीं बिकेगा, उसे राज्य की ओर से खरीदा जायगा। हम चारों अन्धे भाई सुबह से बिकने बैठे हैं। हमें किसी ने नहीं खरीदा, इसलिए या तो हमें खरीदें या फिर आपके राजा अपनी घोषणा वापस लें।" एक अन्य राजसेवक ने कहा “सूरदासो! बिकने वाली चीज बिकती है और खरीदी जाने वाली खरीदी भी जाती है। हमारी 'विदेश-हाट में सभी चीजें तो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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