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________________ ORRO6 6000 D .00.000000 GRESIDOE | वागू देवता का दिव्य रूप २८९ पुण्य पर चिन्तन करते हुए आपने लिखा है ज्वालामुखी फूट रहे हैं। व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र-सभी "भारतीय संस्कृति के सभी चिन्तकों ने पुण्य-पाप के सम्बन्ध में अशान्त हैं, खिन्न हैं। आग के दहकते हुए गोले की तरह जी रहे हैं। विस्तार से चिन्तन किया है। मीमांसा दर्शन ने पुण्य-साधन पर अत्यन्त संतप्त, विक्षुब्ध और तनावपूर्ण स्थिति है। बौद्धिक विकास अत्यधिक बल दिया है। उसका अभिमत है कि पुण्य से स्वर्ग के चरम और परम स्थिति तक पहुँच गया है। मानव ने ज्ञान-विज्ञान अनुपम सुख प्राप्त होते हैं। उन स्वर्गीय सुखों का उपभोग करना ही के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। वैज्ञानिक साधनों जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। पर जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का के प्राचुर्य से भौतिक सुख-सुविधा के तथा आर्थिक समृद्धि के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है-पुण्य-पाप रूपी समस्त कर्मों गगनचुम्बी अम्बार लग चुके हैं। तथापि मानव की आध्यात्मिक, से मुक्ति पाना। यह देहातीत या संसारातीत अवस्था है। जब तक सामाजिक और मानसिक विपन्नता दूर नहीं हुई है। शिक्षा प्रदान प्राणी संसार में रहता है, देह धारण किए हुए है, तब तक उसे करने वाले हजारों विश्वविद्यालय हैं, जहाँ मानव विविध विधाओं संसार में रहना पड़ता है और उसके लिए पुण्यकर्म का सहारा लेना में उच्चतम शिक्षा प्राप्त करता है। किन्तु शिक्षा प्राप्त करने पर भी वह अपनी क्षुद्र स्वार्थवृत्ति व भोग-लोलुपता पर विवेक और संयम पड़ता है। पापकर्म से प्राणी दुःखी होता है, पुण्य कर्म से सुखी। प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। स्वस्थ शरीर, दीर्घ आयुष्य, का अंकुश नहीं लगा पाया है। धन-वैभव, परिवार, यश, प्रतिष्ठा आदि की कामना प्राणिमात्र को नित्य नई ऐच्छिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त होने पर भी मन सन्तुष्ट है, सुख की कामना करने मात्र से सुख नहीं मिलता किन्तु सुख नहीं है। वैज्ञानिक साधनों से विश्व सिमटकर अत्यधिक सन्निकट प्राप्ति के सत्कर्म करने से सुख मिलता है। उस सत्कर्म को शुभ योग आ चुका है। किन्तु मानव-जीवन के बीच हृदय की दूरी प्रतिपल, कहते हैं। आचार्य उमास्वाति ने कहा है-“योगः शुद्धः पुण्यासवस्य प्रतिक्षण अधिक से अधिकतर होती चली जा रही है। वह तन से पापस्य तद्विपर्ययः"-शुभयोग पुण्य का आस्रव करता है और । सन्निकट है, किन्तु मन से दूर है। अशुभयोग पाप का। सुरक्षा के साधनों की विपुलता व ऊँचाई अनन्त आकाश को शुभ योग, शुभ भाव या शुभ परिणाम और सत्कर्म प्रायः एक छू रही है, तथापि मानव का मन भय से संत्रस्त है। हृदय ही अर्थ रखते हैं, केवल शब्द-व्यवहार का अन्तर है। आकुल-व्याकुल है। वह विध्वंसकारी शस्त्रास्त्रों के निर्माण में श्रावक धर्म पर भी आपने एक विराट्काय चिन्तन प्रधान ग्रन्थ प्रतिस्पर्धा में पड़ा हुआ है। ज्ञात नहीं, यह प्रतिस्पर्धा कब सम्पूर्ण का सृजन किया है। उसमें आपश्री ने व्रत के सम्बन्ध में चिन्तन मानव जाति की अन्त्येष्टि का निमित्त बन जाय! एक व्यक्ति के करते हुए लिखा है हृदय में जलती हुई आग कुछ ही क्षणों में संसार को भस्म कर सकती है। व्यक्ति का रोग विश्व का रोग बन सकता है। अर्थ की व्रत एक पाल है, एक तटबन्ध है। आप जिस गाँव में रहते हैं, अत्यधिक अभिवृद्धि होने पर भी मानव की अर्थ-लोलुपता कम नहीं वहाँ यदि बिना पाल का तालाब हो तो क्या आप वहाँ रहना पसन्द हुई है। वह द्रौपदी के दुकूल की तरह बढ़ रही है। एक वर्ग दूसरे करेंगे? आप कहेंगे ऐसी जगह वर्षा के दिनों में एक दिन भी रहना वर्ग को निगलने के लिए व्यग्र है। भोगोपभोग की सामग्री को प्राप्त खतरे से खाली नहीं है। न मालूम कब तालाब में पानी बढ़ जाये करने के लिए वह पागल कुत्ते की भाँति बेतहाशा दौड़ लगा रहा है। और वह बाहर निकलकर गाँव को डुबो दे। मकानों को ढहा दे। अधिकाधिक हैरान व परेशान हो रहा है। व्रत भी एक पाल है, तटबन्ध है। जो स्वच्छन्द बहते हुए मानव-समाज का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि वह भौतिकवाद जीवन-प्रवाह को मर्यादित बना देता है, नियंत्रित कर देता है। की दौड में अध्यात्मवाद को भलाये जा रहा है, त्याग को छोड़कर व्रत जीवन को स्वयं नियन्त्रित करने के लिए स्वेच्छा से भोग की ओर गति कर रहा है। अपरिग्रह को छोड़कर परिग्रह की स्वीकृत मर्यादा है, जिसमें रहकर मानव अपने आपको पशुता, । ओर लपक रहा है। सभ्यता और संस्कृति के नाम पर उच्छृखलता दानवता, उच्छृखलता, पतन, आत्म-विकास में अवरोध उत्पन्न करने व विकृति को अपना रहा है। समता, स्वाभाविकता और सरलता वाले असंयम आदि को रोकता है। के स्थान पर विषमता, कृत्रिमता और छल-छद्म का प्राधान्य हो व्रत एक अटल निश्चय है। मानव जब तक व्रत नहीं लेता, तब रहा है। उसके अन्तर्मानस में उद्दाम वासनाएँ पनप रही हैं और तक उसका मन डाँवाडोल रहता है, उसकी बुद्धि निश्चल और ऊपर से वह सच्चरित्रता का अभिनय कर रहा है। बाह्य और स्थिर नहीं हो पाती। व्रत ग्रहण करने पर मानव का निश्चय अटल | आभ्यंतर जीवन में एकरूपता का अभाव है। कथनी और करनी में हो जाता है। आकाश-पाताल-सा अन्तर है। वह वैज्ञानिक तकनीक को अधिक गहराई से जानता है; पर अपने सम्बन्ध में बिलकुल ही अनजान है। सम्यग्दर्शन पर चिन्तन करते हुए आपश्री ने लिखा है बाहर की सफाइयाँ खूब हो रही हैं, किन्तु भीतर में स्वच्छता का इस विराट् विश्व में हम जिधर भी दृष्टि उठाकर देखते हैं, अभाव है। तन उजला है-मन मलिन है। इसीलिए एक शायर ने उधर ही अशान्ति की ज्वालाएँ धधक रही हैं। विग्रह और संघर्ष के । कहा है JanEditatiofrinternationalpu09009 Re a codacopdasegalse Palya R GE0 %Dowficaiganj.org
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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